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आगम सूत्र ४, अंगसूत्र-४, 'समवाय'
समवाय/ सूत्रांक
समवाय-३२ सूत्र-१०२
बत्तीस योग-संग्रह (मोक्ष-साधक मन, वचन, काय के प्रशस्त व्यापार) हैं । इनके द्वारा मोक्ष की साधना सुचारु रूप से सम्पन्न होती है । वे योग इस प्रकार हैंसूत्र-१०३
आलोचना-व्रत-शुद्धि के लिए शिष्य अपने दोषों की गुरु के आगे आलोचना करे । निरपलाप-शिष्य-कथित दोषों को आचार्य किसी के आगे न कहे। आपत्सु दृढ़धर्मता-आपत्तियों के आने पर साधक अपने धर्म से दृढ़ रहे। अनिश्रितोपधान-दूसरे के आश्रय की अपेक्षा न करके तपश्चरण करे । शिक्षा-सूत्र और अर्थ का पठन-पाठन एवं अभ्यास करे ।
निष्प्रतिकर्मता-शरीर की सजावट-शृंगारादि न करे । सूत्र-१०४
अज्ञानता-यश, ख्याति, पूजादि के लिए अपने तप को प्रकट न करे, अज्ञात रखे। अलोभता-भक्त-पान एवं वस्त्र, पान आदि में निर्लोभ वृत्ति रखे । तितिक्षा-भूख, प्यास आदि परीषहों को सहन करे । अर्जव-अपने व्यवहार को निश्छल और सरस रखे । शुचि-सत्य बोलने और संयम पालने में शुद्धि रखे । सम्यग्दृष्टि-सम्यग्दर्शन को शंका-कांक्षादि दोषों को दूर करते हुए शुद्ध रखे। समाधि-चित्त को संकल्प-विकल्पों से रहित शांत रखे । आचारोपगत-अपने आचरण को मायाचार रहित रखे ।
विनयोपगत-विनय-युक्त रहे, अभिमान न करे । सूत्र - १०५
धृतिमति-अपनी बुद्धि में धैर्य रखे, दीनता न करे । संवेग-संसार से भयभीत रहे और निरन्तर मोक्ष की अभिलाषा रखे । प्रणिधि-हृदय में माया शल्य न रखे। सुविधि-अपने चारित्र का विधि-पूर्वक सत्-अनुष्ठान अर्थात् सम्यक् परिपालन करे । संवर-कर्मों के आने के द्वारों (कारणों) का संवरण अर्थात् निरोध करे । आत्मदोषोपसंहार-अपने दोषों का निरोध करे-दोष न लगने दे।
सर्वकामविरक्तता-सर्व विषयों से विरक्त रहे। सूत्र-१०६
मूलगुण-प्रत्याख्यान-अहिंसादि मूल गुण विषयक प्रत्याख्यान करे । उत्तर-गुण-प्रत्याख्यान-इन्द्रिय-निरोध आदि उत्तर-गुण-विषयक प्रत्याख्यान करे । व्युत्सर्ग-वस्त्र-पात्र आद बाहरी उपधि और मूर्छा आदि आभ्यन्तर उपधि को त्यागे। अप्रमाद-अपने दैवसिक और रात्रिक आवश्यकों के पालन आदि में प्रमाद न करे । लवालव-प्रतिक्षण अपनी सामाचारी के परिपालन में सावधान रहे। ध्यान-संवरयोग-धर्म और शुक्लध्यान की प्राप्ति के लिए आस्रव-द्वारों का संवर करे ।
मारणान्तिक कर्मोदय के होने पर भी क्षोभ न करे, मनमें शान्ति रखे। सूत्र - १०७
संग-परिज्ञा-संग (परिग्रह) की परिज्ञा करे अर्थात् उसके स्वरूप को जानकर त्याग करे । प्रायश्चित्तकरण-अपने दोषों की शुद्धि के लिए नित्य प्रायश्चित्त करे ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (समवाय) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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