Book Title: Agam 04 Samvayang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 33
________________ आगम सूत्र ४, अंगसूत्र-४, 'समवाय' समवाय/ सूत्रांक समवाय-२८ सूत्र-६२ आचारप्रकल्प अट्ठाईस प्रकार का है । मासिकी आरोपणा, सपंचरात्रिमासिकी आरोपणा, सदशरात्रिमासिकी आरोपणा, सपंचदशरात्रिमासिकी आरोपणा, सविशतिरात्रिकोमासिकी आरोपणा, सपंचविशत्तिरात्रिमासिकी आरोपणा । इसी प्रकार छ द्विमासिकी आरोपणा, ६ त्रिमासिकी आरोपणा, ६ चतुर्मासिकी आरोपणा, उपघातिका आरोपणा, अनुपघातिका आरोपणा, कृत्स्ना आरोपणा, अकृत्स्ना आरोपणा, यह अट्ठाईस प्रकार का आचारप्रकल्प है । आचरित दोष की शुद्धि न हो जावे तब तक यह-आचारणीय है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीवों के मोहनीय कर्म की अट्राईस प्रकतियों की सत्ता कही गई है। जैसे-सम्यक्त्ववेदनीय, मिथ्यात्ववेदनीय, सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीय, सोलहकषाय और नौ नोकषाय । आभिनिबोधिकज्ञान अट्ठाईस प्रकार का कहा गया है । जैसे-श्रोत्रेन्द्रिय-अर्थावग्रह, चक्षुरिन्द्रिय-अर्थावग्रह, घ्राणेन्द्रिय-अर्थावग्रह, जिह्वेन्द्रिय-अर्थावग्रह, स्पर्शनेन्द्रिय-अर्थावग्रह, नोइन्द्रिय-अर्थावग्रह, श्रोत्रेन्द्रिय-व्यंजनावग्रह, घ्राणेन्द्रिय-व्यंजनावग्रह, स्पर्शनेन्द्रिय-व्यंजनावग्रह, श्रोत्रेन्द्रिय-ईहा, चक्षरिन्द्रिय-ईहा, घ्राणेन्द्रिय-ईहा, ईहा, स्पर्शनेन्द्रिय-ईहा, नोइन्द्रिय-ईहा, श्रोत्रेन्द्रिय-अवाय, चक्षुरिन्द्रिय-अवाय, घ्राणेन्द्रिय-अवाय, जिह्वेन्द्रिय-अवाय, स्पर्शनेन्द्रिय-अवाय, नोइन्द्रिय-अवाय, श्रोत्रेन्द्रिय-धारणा, चक्षुरिन्द्रिय-धारणा, घ्राणेन्द्रिय-धारणा, जिह्वेन्द्रियधारणा, स्पर्शनेन्द्रिय-धारणा और नोइन्द्रिय धारणा। ईशानकल्प में अट्ठाईस लाख विमानावास कहे गए हैं। देवगति को बाँधने वाला जीव नामकर्म की अट्ठाईस उत्तरप्रकृतियों को बाँधता है । वे इस प्रकार हैं-देवगतिनाम, पंचेन्द्रियजातिनाम, वैक्रियशरीरनाम, तैजसशरीरनाम, कार्मरगशरीरनाम, समचतुरस्रसंस्थाननाम, वैक्रियशरीराङ्गोपाङ्गनाम, वर्णनाम, गन्धनाम, रसनाम, स्पर्शनाम, देवानुपूर्वीनाम, अगुरुलघुनाम, उपघातनाम, पराघातनाम, उच्छ्वासनाम, प्रशस्त विहायोगतिनाम, त्रसनाम, बादरनाम, पर्याप्तनाम, प्रत्येकशरीरनाम, स्थिर-अस्थिर नामों में से कोई एक, शुभ-अशुभ नामों में से कोई एक, आदेय-अनादेय नामों में से कोई एक, सुभगनाम, सुस्वरनाम, यशस्कीर्त्तिनाम और निर्माण नाम । इसी प्रकार नरकगति को बाँधने वाला जीव भी नामकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों को बाँधता है । किन्तु वह प्रशस्त प्रकृतियों के स्थान पर अप्रशस्त प्रकृतियों को बाँधता है । जैसेअप्रशस्त विहायोगतिनाम, हुंडकसंस्थाननाम, अस्थिरनाम, दुर्भगनाम, अशुभनाम, दुःस्वरनाम, अनादेयनाम, अयशस्कीर्त्तिनाम और निर्माणनाम । इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति अट्ठाईस पल्योपम कही गई है। अधस्तन सातवी पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति अट्ठाईस सागरोपम कही गई है । कितनेक असुरकुमारों की स्थिति अट्ठाईस पल्योपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति अट्ठाईस पल्योपम है। उपरितन-अधस्तन ग्रैवेयक विमानवासी देवों की जघन्य स्थिति अट्ठाईस सागरोपम है । जो देव मध्यमउपरिम ग्रैवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति अट्ठाईस सागरोपम है । वे देव चौदह मासों के बाद आन-प्राण या उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं । उन देवों को अट्ठाईस हजार वर्षों के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो अट्ठाईस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। समवाय-२८ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (समवाय) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 33

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