Book Title: Agam 04 Samvayang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

View full book text
Previous | Next

Page 37
________________ आगम सूत्र ४, अंगसूत्र-४, 'समवाय' समवाय/ सूत्रांक सूत्र - ८८ जो अज्ञानी पुरुष, जिन-जिन आचार्यों और उपाध्यायों से श्रुत और विनय धर्म को प्राप्त करता है, उन्हीं की यदि निन्दा करता है, अर्थात् ये कुछ नहीं जानते, ये स्वयं चारित्र से भ्रष्ट हैं, इत्यादि रूप से उनकी बदनामी करता है, तो वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। सूत्र-८९ जो आचार्य, उपाध्याय एवं अपने उपकारक जनों को सम्यक् प्रकार से संतृप्त नहीं करता है अर्थात् सम्यक् प्रकार से उनकी सेवा नहीं करता है, पूजा और सन्मान नहीं करता है, प्रत्युत अभिमान करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। सूत्र - ९० अबहुश्रुत (अल्पश्रुत का धारक) जो पुरुष अपने को बड़ा शास्त्रज्ञानी कहता है, स्वाध्यायवादी और शास्त्रपाठक बतलाता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। सूत्र - ९१ जो अतपस्वी होकर भी अपने को महातपस्वी कहता है, वह सब से महाचोर (भाव-चोर होने के कारण) महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। सूत्र - ९२ उपकार (सेवा-शुश्रूषा) के लिए किसी रोगी, आचार्य या साधु के आने पर स्वयं समर्थ होते हुए भी जो 'यह मेरा कुछ भी कार्य नहीं करता है। इस अभिप्राय से उसकी सेवा आदि कर अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता हैसूत्र-९३ इस मायाचार में पटु, वह शठ कलुषितचित्त होकर (भवान्तर में) अपनी अबोधि का कारण बनता हुआ महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। सूत्र - ९४ जो पुनः पुनः स्त्री-कथा, भोजन-कथा आदि विकथाएं करके मंत्र-यंत्रादि का प्रयोग करता है या कलह करता है, और संसार से पार ऊतारने वाले सम्यग्दर्शनादि सभी तीर्थों के भेदन करने के लिए प्रवृत्ति करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। सूत्र-९५ जो अपनी प्रशंसा के लिए मित्रों के निमित्त अधार्मिक योगों का अर्थात वशीकरणादि प्रयोगों का बार-बार उपयोग करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। सूत्र - ९६ जो मनुष्य-सम्बन्धी अथवा पारलौकिक देवभव सम्बन्धी भोगों में तृप्त नहीं होता हुआ बार-बार उनकी अभिलाषा करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। सूत्र - ९७ जो अज्ञानी देवों की ऋद्धि (विमानादि सम्पत्ति), द्युति (शरीर और आभूषणों की कान्ति), यश और वर्ण (शोभा) का, तथा उनके बल-वीर्य का अवर्णवाद करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। सूत्र-९८ जो देवों, यक्षों और गृह्यकों (व्यन्तरों) को नहीं देखता हुआ भी 'मैं उनकों देखता हूँ ऐसा कहता है, वह जिनदेव के समान अपनी पूजा का अभिलाषी अज्ञानी पुरुष महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। सूत्र-९९ स्थविर मण्डितपुत्र तीस वर्ष श्रमण-पर्याय का पालन करके सिद्ध, बुद्ध हुए, यावत् सर्व दुःखों से रहित हुए। एक-एक अहोरात्र (दिन-रात) मुहूर्त्त-गणना की अपेक्षा तीस मुहूर्त का कहा गया है । इन तीस मुहूर्तों के मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (समवाय) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 37

Loading...

Page Navigation
1 ... 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96