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आगम सूत्र ४, अंगसूत्र-४, 'समवाय'
समवाय/ सूत्रांक
समवाय-२६ सूत्र-६०
दशासूत्र (दशाश्रुतस्कन्ध), (बृहत्) कल्पसूत्र और व्यवहारसूत्र के छब्बीस उद्देशनकाल कहे गए हैं । जैसेदशासूत्र के दश, कल्पसूत्र के छह और व्यवहारसूत्र के दश ।
अभव्यसिद्धिक जीवों के मोहनीय कर्म के छब्बीस कर्मांश (प्रकृतियाँ) सता में कहे गए हैं । जैसे-मिथ्यात्व मोहनीय, सोलह कषाय, स्त्रीवेद, पुरुष वेद, नपुंसकवेद, हास्य, अरति, रति, भय, शोक और जुगुप्सा।
इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति छब्बीस पल्योपम कही गई है । अधस्तन सातवीं महातमःपृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति छब्बीस सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति छब्बीस पल्योपम कही गई है।
सौधर्म-ईशान कल्प में रहने वाले कितनेक देवों की स्थिति छब्बीस पल्योपम है । मध्यम-मध्यम ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति छब्बीस सागरोपम है । जो देव मध्यम-अधस्तनौवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति छब्बीस सागरोपम है । वे देव तेरह मासों के बाद आन-प्राण या उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं । उन देवों के छब्बीस हजार वर्षों के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है।
कितनेक भवसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो छब्बीस भव करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्वदुःखों का अन्त करेंगे । समवाय-२६ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
समवाय-२७ सूत्र-६१
अनगार-निर्ग्रन्थ साधुओं के सत्ताईस गुण हैं । जैसे-प्राणातिपात-विरमण, मृषावाद-विरमण, अदत्तादानविरमण, मैथुन-विरमण, परिग्रह-विरमण, श्रोत्रेन्द्रिय-निग्रह, चक्षुरिन्द्रिय-निग्रह, घ्राणेन्द्रिय-निग्रह, जिह्वेन्द्रिय-निग्रह, स्पर्शनेन्द्रिय-निग्रह, क्रोधविवेक, मानविवेक, मायाविवेक, लोभविवेक, भावसत्य, करणसत्य, योगसत्य, क्षमा, विरागता, मनःसमाहरणता, वचनसमाहरणता, कायसमाहरणता, ज्ञानसम्पन्नता, दर्शनसम्पन्नता, चारित्रसम्पन्नता, वेदनातिसहनता और मारणान्तिकातिसहनता ।
जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप में अभिजित् नक्षत्र को छोड़कर शेक्ष नक्षत्रों के द्वारा मास आदि का व्यवहार प्रवर्तता है । नक्षत्र मास सत्ताईस दिन-रात की प्रधानता वाला कहा गया है। सौधर्म-ईशान कल्पों में उनके विमानों की पथ्वी सत्ताईस सौ योजन मोटी कही गई है।
वेदक सम्यक्त्व के बन्ध रहित जीव के मोहनीय कर्म को सत्ताईस प्रकृतियों की सत्ता कही गई है। श्रावण सुदी सप्तमी के दिन सूर्य सत्ताईस अंगुल की पौरुषी छाया करके दिवस क्षेत्र (सूर्य से प्रकाशित आकाश) की ओर लौटता हुआ और रजनी क्षेत्र (प्रकाश की हानि करता और अन्धकार को) बढ़ाता हुआ संचार करता है।
इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति सत्ताईस पल्योपम की है । अधस्तन सप्तम महातमः प्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकियों की स्थिति सत्ताईस सागरोपम की है । कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति सत्ताईस पल्योपम की है।
सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति सत्ताईस पल्योपम की है । मध्यम-उपरिम ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति सत्ताईस सागरोपम की है । जो देव मध्यम ग्रैवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति सत्ताईस सागरोपम की है । ये देव साढ़े तेरह मासों के बाद आन-प्राण अर्थात् उच्छ्वास निःश्वास लेते हैं। उन देवों को सत्ताईस हजार वर्षों के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है।
कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो सत्ताईस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बद्ध होंगे, कर्मों से मक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दःखों का अन्त करेंगे।
समवाय-२७ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (समवाय) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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