Book Title: Agam 04 Samvayang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 26
________________ आगम सूत्र ४, अंगसूत्र-४, 'समवाय' समवाय/ सूत्रांक समवाय-२० सूत्र-५० बीस असमाधिस्थान हैं । १. दव-दव करते हुए जल्दी-जल्दी चलना, २. अप्रमार्जितचारी होना, ३. दुष्प्रमार्जितचारी होना, ४. अतिरिक्त शय्या-आसन रखना, ५. रात्निक साधुओं का पराभव करना, ६. स्थविर साधुओं को दोष लगाकर उनका उपघात या अपमान करना, ७. भूतों (एकेन्द्रिय जीवों) का व्यर्थ उपघात करना, ८. सदा रोषयुक्त प्रवृत्ति करना, ९. अतिक्रोध करना, १०. पीठ पीछे दूसरे का अवर्णवाद करना, ११. सदा ही दूसरों के गुणों का विलोप करना, जो व्यक्ति दास या चोर नहीं है, उसे दास या चोर आदि कहना, १२. नित्य नए अधिकरणों को उत्पन्न करना। १३. क्षमा किये हुए या उपशान्त हुए अधिकरणों को पुनः पुनः जागृत करना, १४. सरजस्क हाथ-पैर रखना, सरजस्क हाथ वाले व्यक्ति से भिक्षा ग्रहण करना और सरजस्क स्थण्डिल आदि पर चलना, सरजस्क आसनादि पर बैठना, १५. अकाल में स्वाध्याय करना और काल में स्वाध्याय नहीं करना, १६. कलह करना, १७. रात्रि में उच्च स्वर से स्वाध्याय और वार्तालाप करना, १८. गण या संघ में फूट डालने वाले वचन बोलना, १९. सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक खाते-पीते रहना तथा २०. एषणासमिति का पालन नहीं करना और अनैषणीय भक्त-पान को ग्रहण करना । मुनिसुव्रत अर्हत् बीस धनुष ऊंचे थे । सभी घनोदधिवातवलय बीस हजार योजन मोटे कहे गए हैं । प्राणत देवराज देवेन्द्र के सामानिक देव बीस हजार कहे गए हैं । नपुंसक वेदनीय कर्म की, नवीन कर्मबन्ध की अपेक्षा स्थिति बीस कोडाकोड़ी सागरोपम कही गई है । प्रत्याख्यान पूर्व के बीस वस्तु नामक अर्थाधिकार कहे गए हैं । उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी मंडल (आर-चक्र) बीस कोड़ा-कोड़ी सागरोपम काल परिमित कहा गया है । अभिप्राय यह है कि दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का अवसर्पिणी काल मिलकर बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का एक कालचक्र कहलाता है। इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति बीस पल्योपम कही गई है । छठी तमःप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति बीस सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति बीस पल्योपम की कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति बीस पल्योपम है । प्राणत कल्प में देवों की उत्कृष्ट स्थिति बीस सागरोपम है | आरण कल्प में देवों की जघन्य स्थिति बीस सागरोपम है । वहाँ जो देव सात, विसात, सुविसात, सिद्धार्थ, उत्पल, भित्तिल, तिगिंछ, दिशासौवस्तिक, प्रलम्ब, रुचिर, पुष्प, सुपुष्प, पुष्पावत, पुष्पप्रभ, पुष्पदकान्त, पुष्पवर्ण, पुष्पलेश्य, पुष्पध्वज, पुष्पशृंग, पुष्पसिद्ध (पुष्पसृष्ट) और पुष्पोत्तरावतंसक नाम के विशिष्ट विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति बीस सागरोपम है । वे देव दश मासों के बाद आन-प्राण या उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं। उन देवों की बीस हजार वर्षों के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो बीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परमनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। समवाय-२० का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (समवाय) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 26

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