Book Title: Agam 04 Samvayang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 24
________________ आगम सूत्र ४, अंगसूत्र-४, 'समवाय' समवाय/ सूत्रांक समवाय-१८ सूत्र-४३ ब्रह्मचर्य अठारह प्रकार का है । औदारिक (शरीर वाले मनुष्य-तिर्यंचों के) कामभोगों को नहीं मन से स्वयं सेवन करता है, नहीं अन्य को मन से सेवन कराता है और न मन से सेवन करते हुए अन्य की अनुमोदना करता है | औदारिक-कामभोगों को नहीं वचन से स्वयं सेवन करता है, नहीं अन्य को वचन से सेवन कराता है और नहीं सेवन करते हुए अन्य की वचन से अनुमोदना करता है । औदारिक-कामभोगों को नहीं स्वयं काय से सेवन करता है, नहीं अन्य को काय से सेवन कराता है और नहीं काय से सेवन करते हुए अन्य की अनुमोदना करता है । दिव्य काम-भोगों को नहीं स्वयं मन से सेवन करता है, नहीं अन्य को मन से सेवन कराता है और नहीं मन से सेवन करते हुए अन्य की अनुमोदना करता है । दिव्य कामभोगों को नहीं स्वयं वचन से सेवन करता है, नहीं अन्य को वचन से सेवन कराता है और नहीं सेवन करते हुए अन्य की वचन से अनुमोदना करता है । दिव्य कामभोगों को नहीं स्वयं काय से सेवन करता है, नहीं अन्य को काय से सेवन कराता है और नहीं काय से सेवन करते हुए अन्य की अनुमोदना करता है। अरिष्टनेमि अर्हन्त की उत्कृष्ट श्रमण-सम्पदा अठारह हजार साधुओं की थी । श्रमण भगवान महावीर ने सक्षुद्रक-व्यक्त-सभी श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अठारह स्थान कहे हैं। सूत्र -४४ व्रतषट्क, कायषट्क, अकल्प, गृहिभाजन, पर्यंक, निषद्या, स्नान और शरीर शोभा का त्याग । सूत्र-४५ चूलिका-सहित भगवद-आचाराङ्ग सूत्र पद-प्रमाण से अठारह हजार पद हैं। ब्राह्मीलिपि के लेखन-विधान अठारह प्रकार के कहे गए हैं । जैसे-ब्राह्मीलिपि, यावनीलिपि, दोषउपरिकालिपि, खरोष्ट्रिकालिपि, खर-शाविकालिपि, प्रहारातिकालिपि, उच्चत्तरिकालिपि, अक्षरपृष्ठिकालिपि, भोगवतिकालिपि, वैणकियालिपि, निलविकालिपि, अंकलिपि, गणितलिपि, गन्धर्वलिपि (भूतलिपि), आदर्शलिपि, माहेश्वरीलिपि, दामिलिपि, पोलिन्दीलिपि । अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व के अठारह वस्तु नामक अर्थाधिकार कहे गए हैं। धूमप्रभा नामक पाँचवी पृथ्वी की मोटाई एक लाख अठारह हजार योजन है। पौष और आषाढ़ मास में एक बार उत्कृष्ट रात और दिन अठारह मुहूर्त के होते हैं । इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की उत्कृष्ट स्थिति अठारह पल्योपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति अठारह पल्योपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति अठारह पल्योपम है । सहस्रार कल्प में देवों की उत्कृष्ट स्थिति अठारह सागरोपम है। आनत कल्प में कितनेक देवों की जघन्य स्थिति अठारह सागरोपम है। वहाँ जो देव काल, सुकाल, महाकाल, अंजन, रिष्ट, साल, समान, द्रुम, महाद्रुम, विशाल, सुशाल, पद्म, पद्मगुल्म, कुमुदगुल्म, नलिन, नलिनगुल्म, पुण्डरीक, पुण्डरीकगुल्म और सहस्रारावतंसक नाम के विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की स्थिति अठारह सागरोपम कही गई है । वे देव नौ मासों के बाद आन-प्राण या उच्छ्वासनिःश्वास लेते हैं। उन देवों के अठारह हजार वर्ष के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो अठारह भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। समवाय-१८ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (समवाय) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 24

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