Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[२१] अगाध ज्ञानसागर से अभी तक तुम बिन्दुमात्र पाये हो।' स्थूलभद्र ने पुनः निवेदन किया—'भगवन्! मैं हतोत्साह नहीं हूं, किन्तु मुझे वाचना का लाभ स्वल्प मिल रहा है। आपके जीवन का सन्ध्याकाल है, इतने कम समय में वह विराट ज्ञान राशि कैसे प्राप्त कर सकूँगा?' भद्रबाहु ने आश्वासन देते हुए कहा—'वत्स! चिन्ता मत करो। मेरा साधनाकाल सम्पन्न हो रहा है। अब मैं तुम्हें यथेष्ट वाचना दूंगा।' उन्होंने दो वस्तु कम दशपूर्वो की वाचना ग्रहण कर ली। तित्थोगालिय के अनुसार दशपूर्व पूर्ण कर लिये थे और ग्यारहवें पूर्व का अध्ययन चल रहा था। साधनाकाल सम्पन्न होने पर आर्य भद्रबाहु स्थूलभद्र के साथ पाटलिपुत्र आये। यक्षा आदि साध्वियाँ वन्दनार्थ गईं। स्थूलभद्र ने चमत्कार प्रदर्शित किया। जब वाचना ग्रहण करने के लिए स्थूलभद्र भद्रबाहु के पास पहुँचे तो उन्होंने कहा—'वत्स! ज्ञान का अहं विकास में बाधक है। तुम ने शक्ति का प्रदर्शन कर अपने आप को अपात्र सिद्ध कर दिया है। अब तुम आगे की वाचना के लिए योग्य नहीं हो।' स्थूलभद्र को अपनी प्रमादवृत्ति पर अत्यधिक अनुताप हुआ। चरणों में गिर कर क्षमायाचना की और कहा-पुनः अपराध का आवर्तन नहीं होगा। आप मुझे वाचना प्रदान करें। प्रार्थना स्वीकृत नहीं हुई। स्थूलभद्र ने निवेदन किया-मैं पर-रूप का निर्माण नहीं करूंगा, अवशिष्ट चार पूर्व ज्ञान देकर मेरी इच्छा पूर्ण करें। स्थूलभद्र के अत्यन्त आग्रह पर चार पूर्वो का ज्ञान इस अपवाद के साथ देना स्वीकार किया कि अवशिष्ट चार पूर्वो का ज्ञान आगे किसी को भी नहीं दे सकेगा। दशपूर्व तक उन्होंने अर्थ से ग्रहण किया था और शेष चार पूर्वो का ज्ञान शब्दशः प्राप्त किया था। उपदेशमाला विशेष वृत्ति, आवश्यकचूर्णि, तित्थोगालिय, परिशिष्टपर्व, प्रभृति ग्रन्थों में कहीं संक्षेप में और कहीं विस्तार से वर्णन है।
___ दिगम्बर साहित्य के उल्लेखानुसार दुष्काल के समय बारह सहस्र श्रमणों ने परिवृत्त होकर भद्रबाहु उज्जैन होते हुये दक्षिण की ओर बढ़े और सम्राट चन्द्रगुप्त को दीक्षा दी। कितने ही दिगम्बर विज्ञों का यह मानना है कि दुष्काल के कारण श्रमणसंघ में मतभेद उत्पन्न हुआ। दिगम्बर श्रमण को निहार कर एक श्राविका का गर्भपात हो गया। जिससे आगे चलकर अर्ध फालग सम्प्रदाय प्रचलित हुआ। अकाल के कारण वस्त्र-प्रथा का प्रारम्भ हुआ। यह कथन साम्प्रदायिक मान्यता को लिए हुए है। पर ऐतिहासिक सत्य-तथ्य को लिये हुये नहीं है। कितने ही दिगम्बर मूर्धन्य मनीषियों का यह मानना है कि श्वेताम्बर आगमों की संरचना शिथिलाचार के संपोषण हेतु की गयी है। यह भी सर्वथा निराधार कल्पना है। क्योंकि श्वेताम्बर आगमों के नाम दिगम्बर मान्य ग्रन्थों में भी प्राप्त होते हैं।
यहाँ पर यह भी स्मरण रखना होगा कि नेपाल जाकर योग की साधना करने वाले भद्रबाहु और उज्जैन होकर दक्षिण की ओर बढ़ने वाले भद्रबाहु, एक व्यक्ति नहीं हो सकते। दोनों के लिए चतुर्दशपूर्वी लिखा गया है। यह उचित नहीं है। इतिहास के लम्बे अन्तराल में इस तथ्य को दोनों परम्पराएं स्वीकार करती हैं। प्रथम भद्रबाहु का समय वीर-निर्वाण की द्वितीय शताब्दी है तो द्वितीय भद्रबाह का समय वीर-निर्वाण की पांचवीं शताब्दी के पश्चात है। प्रथम भद्रबाह चतर्दश पद सूत्रों के रचनाकार थे। द्वितीय भद्रबाहु वराहमिहिर के भ्राता थे। राजा चन्द्रगुप्त का सम्बन्ध प्रथम.भद्रबाहु के साथ न होकर
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४७. दृष्ट्वा सिंहं तु भीतास्ताः सूरिमेत्य व्यजिज्ञपन् । ज्येष्ठार्य जनसे सिंहस्तत्र सोऽद्यापि तिष्ठति ॥
-परिशिष्ट पर्व, सर्ग-९, श्लोक-८१ अह भणइ थूलभद्दो अण्णं रूवं न किंचि काहामो । इच्छामि जाणिउं जे, अहं चत्तारि पुव्वाई ॥
-तित्थोगाली पइन्ना-८०० ४९. जैन साहित्य का इतिहास, पूर्व पीठिका-संघभेद प्रकरण, पृ. ३७५—पण्डित कैलाशचन्दजी शास्त्री, वाराणसी ५०. (क) षट्खण्डागम, भाग-१, पृ. ९६
(ख) सर्वार्थसिद्धि, पूज्यपाद १-२० (ग) तत्त्वार्थराजवार्तिकं, अकलंक १-२० (घ) गोम्मटसार, जीवकाण्ड, नेमिचन्द्र, पृ. १३४ ५१. वंदामि भद्दबाहुं पाईणं चरियं सगलसुयनाणिं। सुत्तस्स कारगामिसिं दसासु कप्पे य ववहारे ॥
—दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति, गाथा १