Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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उसने सारा संवाद संघ को कहा। संघ अत्यन्त विक्षुब्ध हुआ।क्योंकि भद्रबाहु के अतिरिक्त दृष्टिवाद,की वाचना देने में कोई भी समर्थ नहीं था। पुनःसंघ ने श्रमण-संघाटक को नेपाल भेजा। उन्होंने निवेदन किया-भगवन् ! संघ की आज्ञा की अवज्ञा करने वाले को क्या प्रायश्चित्त आता है ? प्रश्न सुनकर भद्रबाहु गम्भीर हो गये। उन्होंने कहा जो संघ का अपमान करता है, वह श्रुतनिह्नव है। संघ से बहिष्कृत करने योग्य है। श्रमण-संघाटक ने पुन: निवेदन किया—आपने भी संघ की बात को अस्वीकृत किया है, आप भी इस दण्ड के योग्य हैं ? "तित्थोगालिय" में प्रस्तुत प्रसंग पर श्रमण-संघ के द्वारा बारह प्रकार के संभोग विच्छेद का भी वर्णन है।
आचार्य भद्रबाहु को अपनी भूल का परिज्ञान हो गया। उन्होंने मधुर शब्दों में कहा—मैं संघ की आज्ञा का सम्मान करता हूँ। इस समय मैं महाप्राण की ध्यान-साधना में संलग्न हूँ। प्रस्तुत ध्यान साधना से चौदह पूर्व की ज्ञान-राशि का मुहूर्त मात्र में परावर्तन कर लेने की क्षमता आ जाती है। अभी इसकी सम्पन्नता में कुछ समय अवशेष है। अतः मैं आने में असमर्थ हूं। संघ प्रतिभासम्पन्न श्रमणों को यहाँ प्रेषित करे। मैं उन्हें साधना के साथ ही वाचना देने का प्रयास करूंगा।
"तित्थोगालिय के अनुसार भद्रबाहु ने कहा-मैं एक अपवाद के साथ वाचना देने को तैयार हूं। आत्महितार्थ, वाचना ग्रहणार्थ आने वाले श्रमण-संघ में बाधा उत्पन्न नहीं करूंगा। और वे भी मेरे कार्य में बाधक न बनें। कायोत्सर्ग-सम्पन्न कर भिक्षार्थ आते-जाते समय और रात्रि में शयन-काल के पूर्व उन्हें वाचना प्रदान करता रहूंगा।"तथास्तु" कह वन्दन कर वहाँ से वे प्रस्थित हये। संघ को संवाद सुनाया।
संघ ने महान् मेधावी उद्यमी स्थूलभद्र आदि को दृष्टिवाद के अध्ययन के लिए प्रेषित किया। परिशिष्ट पर्व के अनुसार पांच सौ शिक्षार्थी नेपाल पहुंचे थे। "तित्थोगालिय के अनुसार श्रमणों की संख्या पन्द्रह सौ थी। इनमें पांच सौ श्रमण शिक्षार्थी थे और हजार श्रमण परिचर्या करने वाले थे। आचार्य भद्रबाहु प्रतिदिन उन्हें सात वाचना करते थे। एक वाचना भिक्षाचर्या से आते समय, तीन वाचना विकाल वेला में और तीन वाचना प्रतिक्रमण के पश्चात् रात्रि में प्रदान करते थे।
दृष्टिवाद अत्यन्त कठिन था। वाचना प्रदान करने की गति मन्द थी। मेधावी मुनियों का धैर्य ध्वस्त हो गया। चार सौ निन्यानवै शिक्षार्थी मुनि वाचना-क्रम को छोड़कर चले गये। स्थूलभद्र मुनि निष्ठा से अध्ययन में लगे रहे। आठ वर्ष में उन्होंने
आठ पूर्वो का अध्ययन किया। आठ वर्ष के लम्बे समय में भद्रबाहु और स्थूलभद्र के बीच किसी भी प्रकार का उल्लेख नहीं मिलता। एक दिन स्थूलभद्र से भद्रबाहु ने पूछा-'तुम्हें भिक्षा एवं स्वाध्याय योग में किसी भी प्रकार का कोई कष्ट तो नहीं है?' स्थूलभद्र ने निवेदन किया—'मुझे कोई कष्ट नहीं है। पर जिज्ञासा है कि मैंने आठ वर्षों में कितना अध्ययन किया है ? और कितना अवशिष्ट है ?' भद्रबाहु ने कहा—'वत्स! सरसों जितना ग्रहण किया है, और मेरु जितना बाकी है। दृष्टिवाद के
४२. तेहिं अण्णोवि संघाडओ विसज्जितो, जो संघस्स आणं-अतिक्कमति तस्स को दंडो? तो अक्खाई उग्घाडिजई। ते
भणंति मा उग्घाडेह, पेसेह मेहावी, सत्त पडिपुच्छगाणि देमि। -आवश्यकचूर्णि, भाग-२, पत्रांक १८७ ४३. एक्केण कारणेणं, इच्छं भे वायणं दाउं।
अप्पटे आउत्तो, परमटे सुट्ठ दाई उज्जुत्तो । न वि अहं वायरियव्वो, अहंपि नवि वायरिस्सामि ॥ पारियकाउस्सग्गो, भत्तद्वित्तो व अहव सेज्जाए । निंतो व अइंतो वा एवं भे वायणं दाहं ॥
–तित्थोगाली, गाथा ३५, ३६ ४४. परिशिष्ट पर्व, सर्ग ९ गाथा ७० ४५. तित्थोगाली ४६. श्रीभद्रबाहुपादान्ते स्थूलभद्रो महामतिः । पूर्वाणामष्टकं वरपाठीदष्टभिर्भृशम् ॥
-परिशिष्ट पर्व, सर्ग-९, श्लोक-८१