Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
तुलनात्मक अध्ययन
आचारांगसूत्र में जो सत्य तथ्य प्रतिपादित हुए हैं, उनकी प्रतिध्वनि वैदिक और बौद्ध वाङ्मय में निहारी जा सकती है। सत्य अनन्त है, उस अनन्त सत्य की अभिव्यक्ति कभी-कभी सहज रूप से एक सदृश होती है। यह कहना तो अत्यन्त कठिन है कि किस ने किस से कितना ग्रहण किया? पर एक-दूसरे के चिन्तन पर एक-दूसरे के चिन्तन का प्रभाव पड़ना सहज है। वह सत्य ही सहज अभिव्यक्ति है। यदि धार्मिक-साहित्य का गहराई से तुलनात्मक अध्ययन किया जाय तो सहज ही ज्ञान होगा कि किन्हीं भावों में एकरूपता है तो कहीं परिभाषा में एकरूपता है। कहीं पर युक्तियों की समानता है तो कहीं पर रूपक
और कथानक एक सदृश आये हैं । यहाँ हम विस्तार में न जाकर संक्षेप में ही चिन्तन कर रहे हैं जिससे यह सहज परिज्ञात हो सके कि भारतीय परम्पराओं में कितना सामंजस्य रहा है।
आचारांग में आत्मा के स्वरूप पर चिन्तन करते हुए कहा गया है - सम्पूर्ण लोक में किसी के द्वारा भी आत्मा का छेदन नहीं होता, भेदन नहीं होता, दहन नहीं होता और न हनन ही होता है। इसी की प्रतिध्वनि सुबालोपनिषद् और भगवद्गीता में प्राप्त होती है। आचारांग में आत्मा के ही सम्बन्ध में कहा गया है कि जिस का आदि और अन्त नहीं है उस का मध्य कैसे हो सकता है। गौडपादकारिका में भी यही बात अन्य शब्दों में दुहराई गई है।
आचारांग में जन्म-मरणातीत, नित्य, मुक्त आत्मा का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए लिखा है कि उस दशा का वर्णन करने में सारे शब्द निवृत्त हो जाते हैं - समाप्त हो जाते हैं । वहाँ तर्क की पहुँच नहीं और न बुद्धि उसे ग्रहण कर पाती है। कर्ममल रहित केवल चैतन्य ही उस दशा का ज्ञाता है।
मुक्त आत्मा न दीर्घ है, न हूस्व है, न वृत्त-गोल है। वह न त्रिकोण है, न चौरस, न मण्डलाकार । वह न कृष्ण है, न नील, न पीला, न लाल और न शुक्ल ही। वह न सुगन्धि वाला है और न दुर्गन्धि वाला है। वह न तिक्त है, न कडुआ है न कसैला न खट्टा है, न मधुर है । वह न कर्कश है, न कठोर है, न भारी है, न हल्का है, वह न शीत है, न उष्ण है, न स्निग्ध है, न रूक्ष है।
वह न शरीरधारी है, न पुनर्जन्मा है, न आसक्त । वह न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुंसक है। वह ज्ञाता है, वह परिज्ञाता है। उसके लिए कोई उपमा नहीं है। वह अरूपी सत्ता है।
वह अपद है। वचन अगोचर के लिए कोई पद-वाचक शब्द नहीं। वह शब्द रूप नहीं; रूप मय नहीं है, गन्ध रूप नहीं है. रस रूप नहीं है, स्पर्श रूप नहीं है, वह ऐसा कुछ भी नहीं। ऐसा मैं कहता हूँ।
यही बात केनोपनिषद् कठोपनिषद्, बृहदारण्यक', माण्डुक्योपनिषद् १०, तैत्तिरीयोपनिषद् ११ और ब्रह्मविद्योपनिषद् में भी प्रतिध्वनित हुई है।
१. सन छिज्जइ न भिज्जइ न डज्झइ न हम्मइ, कं च णं सव्वलोए। - आचारांग १ ।३।३
न जायते न म्रियते न मुह्यति न भिद्यते न दह्यते । नं छिद्यते न कम्पते न कुप्यते सर्वदहनोऽयमात्मा।- सुबालोपनिषद् ९ खण्ड ईशाद्यष्टोत्तर शतोपनिषद्, पृष्ठ २१० अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च । नित्यः सर्वगतः स्थाणुस्चलोऽयं सनातनः ॥ - भगवद्गीता अ. २, श्लोक-२३
आचारांगसूत्र १ । ४ ।४ ५. . आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽवि तत्तथा। - गौडपादकारिका, प्रकरण २ श्लोक-६ आचारांगसूत्र - १।५।६
७. केनोपनिषद् खण्ड-१, श्लोक-३ कठोपनिषद् अ०१ श्लोक-१५
९. बृहदारण्यक, ब्राह्मण ८ श्लोक-८ १०. माण्डुक्योपनिषद्, श्लोक-७ ११. तैत्तिरीयोपनिषद्, ब्रह्मानन्दवल्ली २ अनुवाद-४ १२. ब्रह्मविद्योपनिषद्, श्लोक ८१-९१
[३४]
८.