Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध इतना ही नहीं, विषय-भोगों की निःसारता और जीवन की अनित्यता इन दो बातों द्वारा संसार की एवं संसार के सभी स्थानों की अनित्यता, क्षणिकता एवं विनश्वरता यहाँ ध्वनित कर दी है।'
'न छणे, न छणावाए' इन पदों में 'छण' शब्द का रूपान्तर'क्षण' होता है। क्षणु हिंसायाम्' हिंसार्थक 'क्षणु' धातु से 'क्षण' शब्द बना है। अतः इन दोनों पदों का अर्थ होता है, स्वयं हिंसा न करे और न ही दूसरों के द्वारा हिंसा कराए। उपलक्षण से हिंसा करने वाले का अनुमोदन भी न करे।
'अणण्ण' शब्द का तात्पर्य है - अनन्य - मोक्षमार्ग। क्योंकि मोक्षमार्ग से अन्य - असंयम है और जो अन्यरूप असंयम रूप नहीं है, वह ज्ञानादि रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग अनन्य है। 'अनन्य' शब्द मोक्ष, संयम और आत्मा की एकता का भी बोधक है। ये आत्मा से अन्य नहीं है, आत्मपरिणति रूप ही है अर्थात् मोक्ष एवं संयम आत्मा में ही स्थित है। अतः वह आत्मा से अभिन्न 'अनन्य' है।
'अणोमदंसी' शब्द का तात्पर्य है - सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रदर्शी। अवम का अर्थ है - हीन। हीन है - मिथ्यात्व-अविरति आदि। अवमरूप मिथ्यात्वादि से विपरीत सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रादि अनवम उच्च - महान हैं। साधक को सदा उच्चद्रष्टा होना चाहिए। अनवम - उदात्त का द्रष्टा - अनवमदर्शी यानी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रदर्शी होता है।
लोभ को नरक इसलिए कहा गया है कि लोभ के कारण हिंसादि अनेक पाप होते हैं, जिनसे प्राणी सीधा नरक में जाता है - गीता में भी कहा है -
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधस्तथा लोभः तस्मादेतत् त्रयं त्यजेत् ॥ ये तीन आत्मनाशक और नरक के द्वार हैं - काम, क्रोध और लोभ। इसलिए मनुष्य इन तीनों का परित्याग
करे।
___ 'लहुभूयगामी के दो रूप होते हैं - (१) लघुभूतगामी और (२) लघुभूतकामी। लघुभूत - जो कर्मभार से सर्वथा रहित है - मोक्ष या संयम को प्राप्त करने के लिए जो गतिशील है, वह लघुभूतगामी है और जो लघुभूत (अपरिग्रही या निष्पाप होकर बिल्कुल हल्का) बनने की कामना (मनोरथ) करता है, वह लघुभूतकामी है। ज्ञातासूत्र में लघुभूत तुम्बी का उदाहरण देकर बताया है कि जैसे - सर्वथा लेपरहित होने पर तुम्बी जल के ऊपर आ जाती है, वैसे ही लघुभूत आत्मा संसार से ऊपर मोक्ष में पहुंच जाता है।
॥ द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥
आचा० शीला० टीका पत्रांक १४८ आचा० शीला० टीका पत्रांक १४८ आचा० शीला० टीका पत्रांक १४८ आचा० शीला० टीका पत्रांक १४८ अध्ययन ६