Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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चतुर्थ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक सूत्र १३४
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केवलज्ञान के प्रकाश में इसे देखा है, अनुभव किया है, लघुकर्मी भव्य जीवों ने इसे सुना है, अभीष्ट माना है । जीवन में आचरित है, इसके शुभ-परिणाम भी जाने-देखे गए हैं, इस प्रकार अहिंसा धर्म की महत्ता एवं उपयोगिता बताने के लिए ही 'उट्ठिएसु' से लेकर इस उद्देशक के अन्तिम वाक्य तक के सूत्रों द्वारा उल्लेख किया गया है, ताकि साधक की दृष्टि, मति, गति, निष्ठा और श्रद्धा अहिंसाधर्म में स्थिर हो जाए। ___'दिद्वेहिं णिव्वेयं गच्छेज्जा' का आशय यह है कि इष्ट या अनिष्ट रूप जो कि दृष्ट हैं - शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श हैं, उनमें निर्वेद - वैराग्य धारण करे। इष्ट के प्रति राग और अनिष्ट के प्रति द्वेष/घृणा न करे।
__ 'लोकैषणा' से तात्पर्य है - सामान्यतया इष्ट विषयों के संयोग और अनिष्ट के वियोग की लालसा। यह प्रवृत्ति प्रायः सभी प्राणियों में रहती है, इसलिए साधक के लिए इस लोकैषणा का अनुसरण करने का निषेध किया गया है।
॥प्रथम उद्देशक समाप्त ॥
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बीओ उद्देसओ
द्वितीय उद्देशक सम्यग्ज्ञान : आस्रव-परिस्रव चर्चा
१३४. जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा । जे अणासवा ते अपरिस्सवा, जे अपरिस्सवा ते अणासवा । एते य पए संबुज्झमाणे लोगं च आणाए अभिसमेच्चा पुढो पवेदितं । आघाति णाणी इह माणवाणं आचा० शीला० टीका पत्रांक १६३ आचा० शीला० टीका पत्रांक १६२ आचा० शीला० टीका पत्रांक १६३ 'एते यपए संबुज्झमाणे' पाठ में किसी-किसी प्रति में 'य' नहीं है। चूर्णि में इन पदों की व्याख्या इस प्रकार की गयी है-"एते य पदे संबुझ,च सद्दा अण्णे यजीव-अजीव-बंध-संवर-मोक्खा ।संमं संगतं वा पसत्थं वा बुझमाणे"-'च' शब्द से अन्य (तत्त्व) जीव, अजीव, बन्ध, संवर और मोक्ष पदों का ग्रहण कर लेना चाहिए। 'संबुज्झमाणे' का अर्थ है - सम्यक्, संगत या प्रशस्तरूप से समझने वाला। भदंत नागार्जुन वाचना में इस प्रकार का पाठ उपलब्ध है - "आघांति धर्म खलु जे जीवाणं, संसार-पडिवण्णाणं मणुस्सभवत्थाणं आरंभविणयीणं दुक्खुव्वेअसुहेसगाणं,धम्मसवणगवेसगाण (निक्खित्त सत्थाणं)सुस्सूसमाणाणं पडिपुच्छमाणाणं विण्णाणपत्ताणं ।" इसका भावार्थ इस प्रकार है - ज्ञानी पुरुष उन जीवों को धर्मोपदेश देते हैं, जो संसार (चर्तुगति रूप) में स्थित हैं, मनुष्यभव में स्थित हैं, आरम्भ से विशेष प्रकार से हटे हुए हैं, दुःख से उद्विग्न होकर सुख की तलाश करते हैं, धर्म-श्रवण की तलाश में रहते हैं, शस्त्र-त्यागी हैं, धर्म सुनने को इच्छुक हैं, प्रति-प्रश्न करने के अभिलाषी हैं, जिन्हें विशिष्ट अनुभव युक्त ज्ञान प्राप्त है।
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