Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध अविरति, प्रमाद, कषाय आदि के रूप में रहता है। यहाँ पर भावान्ध प्राणी विवक्षित है, जो सम्यग्ज्ञान रूप नेत्र से हीन है तथा मिथ्यात्व रूप अन्धकार में ही भटकता है। धूतवाद का व्याख्यान
१८१. आयाण भो ! सुस्सूस भो ! धूतवादं पवेदयिस्सामि। इह खलु अत्तताए । तेहिं तेहिं कुलेहि अभिसेएण अभिसंभूता अभिसंज़ाता अभिणिव्वट्टा अभिसंवुड्डा अभिसंबुद्धा अभिणिक्खंता अणुपुव्वेण महामुणी।
१८२. तं परक्कमंतं परिदेवमाणा मा णे चयाहि ५ इति ते वदंति ।
. छंदोवणीता अज्झाववण्णा अवक्कंदकारी जगणा रुदंति। __ अतारिसे मुणी ओहं तरए जणगा जेण विप्पजढा । सरणं तत्थ णो समेति । किह णाम से तत्थ रमति । एतं णाणं सया समणुवासेजासि त्ति बेमि ।
॥पढमो उद्देसओ सम्मत्तो ॥ -१८१. हे मुने ! समझो, सुनने की इच्छा (रुचि) करो, मैं (अब) धूतवाद का निरूपण करूँगा। (तुम) इस संसार में आत्मत्व (स्वकृत-कर्म के उदय) से प्रेरित होकर उन-उन कुलों में शुक्र-शोणित के अभिषेक-अभिसिंचन से माता के गर्भ में कललरूप हुए, फिर अर्बुद (मांस) और पेशी रूप बने, तदनन्तर अंगोपांग - स्नायु, नस, रोम आदि के क्रम से अभिनिष्पन्न (विकसित) हुए, फिर प्रसव होकर (जन्म लेकर) संवर्द्धित हुए, तत्पश्चात् अभिसम्बुद्ध (सम्बोधि को प्राप्त) हुए, फिर धर्म-श्रवण करके विरक्त होकर अभिनिष्क्रमण किया (प्रव्रजित हुए) इस प्रकार क्रमशः महामुनि बनते हैं।
__ १८२. (गृहवास से पराङ्मुख एवं सम्बुद्ध होकर) मोक्षमार्ग-संयम में पराक्रम करते हुए उस मुनि के मातापिता आदि करुण-विलाप करते हुए यों कहते हैं - 'तुम हमें मत छोड़ो, हम तुम्हारे अभिप्राय के अनुसार व्यवहार करेंगे, तुम पर हमें ममत्व - (स्नेह/विश्वास) है। इस प्रकार आक्रन्द करते (चिल्लाते) हुए वे रुदन करते हैं।'
(वे रुदन करते हुए स्वजन कहते हैं -) 'जिसने माता-पिता को छोड़ दिया है, ऐसा व्यक्ति न मुनि हो सकता है और न ही संसार-सागर को पार कर सकता है।' १. आचा० शीला० टीका पत्रांक २१२
'धूतवादं' के बदले चूर्णि में पाठ मिलता है - धुयं वायं पवेदइस्मामि धुयं भणितं धुयस्स वादो। धुजति जेण कम्मं तवसा - जिस तपस्या से कर्मों को धुनन-कम्पित किया जाता है, वह है- धूत । धूत का वाद दर्शन-धूतवाद है। नागार्जुनीय पाठान्तर यह है - धुतोवार्य पवेदइस्सामि - जेण.....कम्मं धुणति तं उवायं।' - जिससे कर्म धुने जाएँ - क्षय किये जाएँ, उसे धूत कहते हैं, उसके उपाय को धूतोपाय कहते हैं। इसकी व्याख्या चूर्णिकार के शब्दों में देखिए - 'अत्तभावो अत्तता, ताए.....तेसु तेसुत्ति उत्तम-अहम-मज्झिमेसु'- आत्मभावआत्मता है, उसके द्वारा.....उन-उन उत्तम-अधम-मध्यम कुलों में.......
'अभिसंवुड्डा' के बदले चूर्णि में अभिसंबुद्धा' पाठ है। ५. 'चयाहि' के बदले 'जहाहि' क्रियापद मिलता है।
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