Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
क्रमशः पूर्व तैयारी की जाती है, जिसकी झांकी सू० २३० से २३४ तक में दी गई है। सूत्र २३० से भक्तप्रत्याख्यान रूप अनशन का निरूपण है। यहाँ सविचार भक्तप्रत्याख्यान का प्रसंग है। इसलिए इसमें सभी कार्यक्रम क्रमशः सम्पन्न किये जाते हैं। भक्तप्रत्याख्यान अनशन को पूर्णतः सफल बनाने के लिए अनशन का पूर्ण संकल्प लेने से पूर्व मुख्यतया निम्नोक्त क्रम अपनाना आवश्यक है - जिसका निर्देश उक्त गाथाओं में है। वह क्रम इस प्रकार है -
(१) संलेखना के बाह्य और आभ्यन्तर दोनों रूपों को जाने और हेय का त्याग करे।
(२) प्रव्रज्याग्रहण, सूत्रार्थग्रहण-शिक्षा, आसेवना-शिक्षा आदि क्रम से चल रह संयम-पालन में शरीर के असमर्थ हो जाने पर शरीर-विमोक्ष का अवसर जाने।
(३) समाधिमरण के लिए उद्यत भिक्षु क्रमशः कषाय एवं आहार की संलेखना करे। (४) संलेखना काल में उपस्थित रोग, आतंक, उपद्रव एवं दुर्वचन आदि परीषहों को समभाव से सहन करे।
(५) द्वादशवर्षीय संलेखना काल में आहार कम करने से समाधि भंग होती हो तो संलेखना क्रम छोड़कर आहार कर ले, यदि आहार करने से समाधि भंग होती हो तो वह आहार का सर्वथा त्याग करके अनशन.स्वीकार कर ले।
(६) जीवन और मरण में समभाव रखे। (७) अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में मध्यस्थ और निर्जरादर्शी रहे। (८) ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य, समाधि के इन पांच अंगों का अनुसेवन करे।
(९) भीतर की रागद्वेषादि ग्रन्थियों और बाहर की शरीरादि से सम्बद्ध प्रवृत्तियों तथा ममता का व्युत्सर्ग करके शुद्ध अध्यात्म की झांकी देखें।
(१०) निराबाध संलेखना में आकस्मिक विघ्न-बाधा उपस्थित हो तो संलेखना के क्रम को बीच में ही छोड़कर भक्तप्रत्याख्यान अनशन का संकल्प कर ले।
का संकल्प कर ले। (११) विघ्न-बाधा न हो तो संलेखनाकाल पूर्ण होने पर ही भक्तप्रत्याख्यान ग्रहण करे। - संलेखना : स्वरूप, प्रकार और विधि - सम्यक् रूप से काय और कषाय का - बाह्य और आभ्यन्तर का सम्यक् लेखन - (कृश) करना संलेखना है। इस दृष्टि से संलेखना दो प्रकार की है - बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य संलेखना शरीर में और आभ्यन्तर कषायों में होती है। आध्यात्मिक दृष्टि से भाव संलेखना वह है, जिसमें आत्मसंस्कार के अनन्तर उसके लिए ही क्रोधादि कषाय रहित अनन्तज्ञानादि गुणों से सम्पन्न परमात्म-पद में स्थित होकर रागादि विकल्पों को कृश किया जाय और उस भाव-संलेखना की सहायता के लिए कायक्लेश रूप अनुष्ठान भोजनादि का त्याग करके शरीर को कृश करना द्रव्यसंलेखना है। २
काल की अपेक्षा से संलेखना तीन प्रकार की होती है - जघन्या, मध्यमा और उत्कृष्टा । जघन्या लेखना १२ पक्ष की, मध्यमा १२ मास की और उत्कृष्टा १२ वर्ष की होती है।
द्वादशवर्षीय संलेखना की विधि इस प्रकार है - प्रथम चार वर्ष तक कभी उपवास, कभी बेला, कभी तेला, चोला या पंचोला, इस प्रकार विचित्र तप करता है, पारणे के दिन उद्गमादि दोषों से रहित शुद्ध आहार करता है।
आचा० शीला० टीका पत्रांक २८९, २९०। २. (क) सर्वार्थसिद्धि ७। २२। ३६३ (ख) भगवती आराधना मूल २०६। ४२३
(ग) पंचास्तिकाय ता० बृ० १७३ । २५३ । १७