Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 329
________________ नवम अध्ययन : प्रथम उद्देशक: सूत्र २५८-२६४ भगवान् को जाते हुए रोक कर कहा था - "देवार्य ! ठहरो, मेरा वीणावादन सुन जाओ । 'भगवान् प्रतिकूलअनुकूल दोनों प्रकार की परिस्थिति को ध्यान में विघ्न समझकर उनसे विरत रहते थे । वे मौन रह कर अपने ध्यान में ही पराक्रम करते रहते । छठा विघ्न - कहीं परस्पर कामकथा या गप्पें हाँकने में आसक्त लोगों को भगवान् हर्षशोक से मुक्त (तटस्थ) होकर देखते थे। उन अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्ग रूप विघ्नों को वे स्मृतिपट पर नहीं लाते थे, केवल आत्मध्यान में तल्लीन रहते थे । २ सातवाँ विघ्न - यह भी एक ध्यानविघ्न् था बड़े भाई नंदीवर्धन के आग्रह से दो वर्ष तक गृहवास में रहने का। माता-पिता के स्वर्गवास के पश्चात् २८ वर्षीय भगवान् ने प्रव्रज्या लेने की इच्छा प्रकट की, इस पर नंदीवर्धन आदि ने कहा "कुमार ! ऐसी बात कहकर हमारे घाव पर नमक मत छिड़को। माता-पिता के वियोग का दुःख ताजा है, उस पर तुम्हारे श्रमण बन जाने से हमें कितना दुःख होगा ।" 44 भगवान् ने अवधिज्ञान में देखकर सोचा - "इस समय मेरे प्रव्रजित हो जाने से बहुत-से लोक शोक संतप्त होकर विक्षिप्त हो जाएँगे, कुछ लोग प्राण त्याग देंगे।" अतः भगवान् ने पूछा- 'आप ही बतलाएँ, मुझे यहाँ कितने समय रहना होगा ?" उन्होंने कहा ." माता-पिता की मृत्यु का शोक दो वर्ष में दूर होगा। अतः दो वर्ष तक तुम्हारा घर में रहना आवश्यक i" - - १. २. ܙ ܙ ܕ भगवान् ने उन्हें इस शर्त के साथ स्वीकृति दे दी कि, "मैं भोजन आदि के सम्बन्ध में स्वतन्त्र रहूँगा । " नन्दीवर्द्धन आदि ने इसे स्वीकार किया। और सचमुच ध्यान- विघ्नकारक गृहवास में भी निर्लिप्त रहकर साधुजीवन की साधना की। ३. २८३ एगत्तिगते - एकत्वभावना से भगवान् का अन्त:करण भावित हो गया था। तात्पर्य यह है कि " मेरा कोई नहीं है, न मैं किसी का हूँ।" इस प्रकार की एकत्वभावना से वे ओत-प्रोत हो गए थे । वृत्तिकार और चूर्णिकार को यही व्याख्या अभीष्ट है । ४ ४. - पिहितच्चे- शब्द के चूर्णिकार ने दो अर्थ किए हैं - अर्चा का अर्थ आस्रव करके इसका एक अर्थ किया है - जिसके आस्रव-द्वार बन्द हो गए हैं। (२) अथवा जिसकी अप्रशस्तभाव रूप अर्चियाँ अर्थात् राग-द्वेष रूप अग्नि की ज्वालाएँ शान्त हो गयी हैं, वह भी पिहितार्च्य है । वृत्तिकार ने इससे भिन्न दो अर्थ किए हैं - (१) जिसने अर्चा - क्रोध- ज्वाला स्थगित कर दी है, वह पिहितार्च्य है, अथवा (२) अर्चा यानी तन (शरीर) को जिसने पिहितसंगोपित कर लिया है, वह भी पिहितार्च है । ५ ५. आयारो (मुनि नथमल जी) पृ० ३४३ आचा० शीला० टीका पत्र ३०३ आचा० शीला० टीका पत्र ३०३ (कं) आचा० शीला० टीका पत्र ३०३ (ख) आचारांग चूर्णि - आचा० मूलपाठ टिप्पण पृ० ९१ (क) 'पिहितच्चा' के अर्थ चूर्णिकार ने यों किए हैं- पिहिताओ अच्चाओ जस्स भवति पिहितासवो, अच्चा पुव्वभणिता....भावच्चातो वि अप्पसत्थाओ पिहिताओ रागदोसाणिलजाला पिहिता । (ख) आचा० शीला० टीका पत्र ३०३ • आचारांग चूर्णि आचा० मूलपाठ टिप्पण पृ० ९१ -

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