Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 334
________________ २८८ किया हुए, भगवान् महावीर की दृष्टि में निम्नोक्त कर्मस्रोत तत्काल बन्द करने योग्य प्रतीत (१) प्राणियों का आरम्भ । (२) उपधि – बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह । (३) हिंसा की प्रवृत्ति । (४) स्त्री - प्रसंग रूप अब्रह्मचर्य । (५) आधाकर्म आदि दोषयुक्त आहार । (६) पर - वस्त्र और पर - पात्र का सेवन । (७) आहार के लिए सम्मान और पराश्रय की प्रतीक्षा । (८) अतिमात्रा में आहार । १. २. ३. आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध जिनको उन्होंने बन्द (९) रस-लोलुपता । (१०) मनोज्ञ एवं सरस आहार लेना । (११) देहाध्यास - आँखों में पड़ा रजकण निकालना, शरीर खुजलाना आदि । (१२) अयतना एवं चंचलता से गमन । (१३) शीतकाल में शीतनिवारण का प्रयत्न ।' १ कम्मु कप्पिया पुढो बाला - का तात्पर्य है - राग-द्वेष से प्रेरित होकर किये हुए अपने-अपने कर्मों के कारण अज्ञ जीव पृथक् पृथक् बार-बार सभी योनियों में अपना स्थान बना लेते हैं । २ 'सोवधिए हु लुप्पती' - इस पंक्ति में 'उपधि' शब्द विशेष अर्थ को सूचित करता है। उपधि तीन प्रकार की बतायी गयी है - (१) शरीर, (२) कर्म और (३) उपकरण आदि परिग्रह । वैसे बाह्य - आभ्यन्तर परिग्रह को भी उपधि कहते हैं । भगवान् मानते थे कि इन सब उपधियों से मनुष्य का संयमी जीवन दब जाता है। ये उपधियाँ लुम्पक - लुटेरी हैं । ३ 'जस्सित्थीओ परिण्णाता' - स्त्रियों से यहाँ अब्रह्म - कामवासनों से तात्पर्य है । 'स्त्री' शब्द को अब्रह्मचर्य का प्रतीक माना है जो इन्हें भली-भाँति समझकर त्याग देता है, वह कर्मों के प्रवाह को रोक देता है । यह वाक्य उपदेशात्मक है, ऐसा चूर्णिकार मानते हैं। परवस्त्र, परपात्र के सेवन का त्याग - चूर्णि के अनुसार भगवान् ने दीक्षा के समय जो देवदूष्य वस्त्र धारण किया था, उसे १३ महीने तक सिर्फ कंधे पर टिका रहने दिया, शीतादि निवारणार्थ उसका उपयोग बिल्कुल नहीं आचारांग मूल पाठ एवं वृत्ति पत्र ३०४- ३०५ के आधार पर आचा० शीला० टीका पत्रांक ३०४ आचा० शीला० टीका पत्रांक ३०४ (क) आचा०शीला० टीका पत्रांक ३०५ (ख) इसके बदले चूर्णिकार 'तस्सित्थीओ परिण्णाता' पाठ मानते हैं, उसका अर्थ भगवान् महावीर परक करके फिर कहते हैं - 'अहवा उवदेसिगमेव....जस्सित्थीओ परिण्णाता।' अर्थात् अथवा यह उपदेशपरक वाक्य ही है 'जिसको स्त्रियाँ (स्त्रियों की प्रकृति) परिज्ञात हो जाती है।' - आचा० चूर्णि मूलपाठ टिप्पण पृ० ९२

Loading...

Page Navigation
1 ... 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430