Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 335
________________ नवम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र २६५-२७६ २८९ किया। वही वस्त्र उनके लिए स्ववस्त्र था, जिसका उन्होंने १३ महीने बाद व्युत्सर्ग कर दिया था, फिर उन्होंने पाडिहारिक रूप में भी कोई वस्त्र धारण नहीं किया। जैसे कि कई संन्यासी गृहस्थों से थोड़े समय तक उपयोग के लिए वस्त्र ले लेते हैं, फिर वापस उन्हें सौंप देते हैं। भगवान् महावीर ने अपने श्रमण संघ में गृहस्थों के वस्त्र-पात्र का उपयोग करने की परिपाटी को सचित्त पानी आदि से सफाई करने के कारण पश्चात्कर्म आदि दोषों का जनक माना है। भगवान् ने प्रव्रजित होने के बाद प्रथम पारणे में गृहस्थ के पात्र में भोजन किया था, तत्पश्चात् वे कर-पात्र हो गए थे। फिर उन्होंने किसी के पात्र में आहार नहीं किया। बल्कि नालन्दा की तन्तुवायशाला में जब भगवान् विराजमान थे, तब गोशालक ने उनके लिए आहार ला देने की अनुमति माँगी, तो 'गृहस्थ के पात्र में आहार लाएगा' इस सम्भावना के कारण उन्होंने गोशालक को मना कर दिया। केवलज्ञानी तीर्थंकर होने पर उनके लिए - लोहार्य मुनि गृहस्थों के यहाँ से आहार लाता था, जिसे वे पात्र में लेकर नहीं, हाथ में लेकर करते थे। __ आहार-सम्बन्धी दोषों का परित्याग - आहार ग्रहण करने के समय भी जैसे दोषों से सावधान रहना पड़ता है, वैसे ही आहार का सेवन करते समय भी। भगवान् ने आहार सम्बन्धी निम्नोक्त दोषों को कर्मबन्धजनक मानकर उसका परित्याग कर दिया था - (१) आधाकर्म आदि दोषों से युक्त आहार। (२) सचित्त आहार। (३) पर-पात्र में आहार-सेवन। (४) गृहस्थ आदि से आहार मँगा कर लेना, या आहार के लिए जाने में निमंत्रण, मनुहार या सम्मान की अपेक्षा रखना। (५) मात्रा से अधिक आहार करना। (६) स्वादलोलुपता। (७) मनोज्ञ भोजन का संकल्प। ३ 'अप्पं तिरियं...' आदि गाथा में 'अप्प' शब्द अल्पार्थक न होकर निषेधार्थक है। चलते समय भगवान् का ध्यान अपने-सामने पड़ने वाले पथ पर रहता था, इसलिए न तो वे पीछे देखते थे, न दाएँ-बाएँ, और न ही रास्ते चलते - बोलते थे।४ अणुक्कंतो - का अर्थ वृत्तिकार करते हैं अनुचीर्ण-आचरित । किन्तु चूर्णिकार इसके दो अर्थ फलित करते चूर्णिकार ने 'णासेवई य परवत्थं' मानकर अर्थ किया है - "जं तं दिव्वं देवदूसं पव्वयंतेण गहियं तं साहियं वरिसं खंधेण चेव धरितं,ण विपाउयं तं मुइत्ता सेसं परवत्थ पाडिहारितमविण धरितवां के विइच्छंति सवत्थं तस्स तत्, सेसं परवत्थं जंगादितंणासेवितवां।" - आचारांग चूर्णि मूलपाठ टिप्पण पृ० ९२ आवश्यक चूर्णि पूर्व भाग पृ० २७१ आचारांग मूल तथा वृत्ति पत्र ३०५ के आधार पर आचा० शीला० टीका पत्र ३०५

Loading...

Page Navigation
1 ... 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430