Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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अष्टम अध्ययन : अष्टम उद्देशक : सूत्र २३०-२३९
२६५ २३८. पाणा देहं विहिंसंति ठाणातो ण वि उब्भमे ।
आसवेहिं विवित्तेहिं तिप्पमाणोऽधियासए ॥२५॥ २३९. गंथेहिं विवित्तेहिं आयुकालस्स पारए ।
पग्गहीततरगं चेतं दवियस्स वियाणतो .॥२६॥ २३०. वे धर्म के पारगामी प्रबुद्ध भिक्षु दोनों प्रकार से (शरीर उपकरण आदि बाह्य पदार्थों तथा रागादि आन्तरिक विकारों की) हेयता का अनुभव करके (प्रव्रज्या आदि के) क्रम से (चल रहे संयमी शरीर को) विमोक्ष का अवसर जानकर आरंभ (बाह्य प्रवृत्ति) से सम्बन्ध तोड़ लेते हैं ॥ १७॥
२३१. वह कषायों को कृश (अल्प) करके, अल्पाहारी बन कर परीषहों एवं दुर्वचनों को सहन करता है, यदि भिक्षु ग्लानि को प्राप्त होता है, तो वह आहार के पास ही न जाये (आहार-सेवन न करे).॥ १८ ॥
२३२. (संलेखना एवं अनशन-साधना में स्थित श्रमण) न तो जीने की आकांक्षा करे, न मरने की अभिलाषा करे। जीवन और मरण दोनों में भी आसक्त न हो ॥ १९ ॥
२३३. वह मध्यस्थ (सुख-दुःख में सम) और निर्जरा की भावना वाला भिक्षु समाधि का अनुपालन करे। वह (राग, द्वेष, कषाय आदि) आन्तरिक तथा (शरीर, उपकरण आदि) बाह्य पदार्थों का व्युत्सर्ग - त्याग करके शुद्ध अध्यात्म की एषणा (अन्वेषणा) करे ॥२०॥
२३४. (संलेखना-काल में भिक्षु को) यदि अपनी आयु के क्षेम (जीवन-यापन) में जरा-सा भी (किसी आतंक आदि का) उपक्रम (प्रारम्भ) जान पड़े. तो उस संलेखना काल के मध्य में ही पण्डित भिक्षु शीघ्र (भक्तप्रत्याख्यान आदि से) पण्डितमरण को अपना ले ॥ २१॥ .
२३५. (संलेखन-साधक) ग्राम या वन में जाकर स्थण्डिलभूमि का प्रतिलेखन (अवलोकन) करे, उसे जीव-जन्तुरहित स्थान जानकर मुनि (वहीं) घास बिछा ले ॥ २२॥
___२३६. वह वहीं (उस घास के बिछौने पर) निराहार हो (त्रिविध या चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान) कर (शान्तभाव से) लेट जाये। उस समय परीषहों और उपसर्गों से आक्रान्त होने पर (समभावपूर्वक) सहन करे। मनुष्यकृत (अनुकूल-प्रतिकूल) उपसर्गों से आक्रान्त होने पर भी मर्यादा का उल्लंघन न करे ॥ २३ ॥ ।
२३७. जो रेंगने वाले (चींटी आदि) प्राणी हैं, या जो (गिद्ध आदि) ऊपर आकाश में उड़ने वाले हैं, या (सर्प आदि) जो नीचे बिलों में रहते हैं, वे कदाचित् अनशनधारी मुनि के शरीर का मांस नोचें और रक्त पीएँ तो मुनि न तो उन्हें मारे और न ही रजोहरणादि से प्रमार्जन (निवारण) करे ॥ २४॥
२३८. (वह मुनि ऐसा चिन्तन करे) ये प्राणी मेरे शरीर का विघात (नाश) कर रहे हैं, (मेरे ज्ञानादि आत्मगुणों का नहीं, ऐसा विचार कर उन्हें न हटाए) और न ही उस स्थान से उठकर अन्यत्र जाए। आस्रवों (हिंसादि) से पृथक् हो जाने के कारण (अमृत से सिंचित की तरह) तृप्ति अनुभव करता हुआ (उन उपसर्गों को) सहन करे॥२५॥
२३९. उस संलेखना-साधक की (शरीर उपकरणादि बाह्य और रागादि अन्तरंग) गांठे (ग्रन्थियाँ) खुल जाती हैं, (तब मात्र आत्मचिन्तन में संलग्न वह मुनि) आयुष्य (समाधिमरण) के काल का पारगामी हो जाता है ॥ २६ ॥
विवेचन - भक्तप्रत्याख्यान अनशन की पूर्व तैयारी - इन गाथाओं में इसका विशद वर्णन किया गया है। समाधिमरण के लिए पूर्वोक्त तीन अनशनों में से भक्तप्रत्याख्यानरूप एक अनशन का चुनाव करने के बाद उसकी