Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग
गिड़गिड़ाता है । वह अस्वस्थ दशा में भी अपने साधर्मिकों को सेवा के लिए नहीं कहता। वह कर्मनिर्जरा समझ कर करने पर ही उसकी सेवा को स्वीकार करता है। स्वयं भी सेवा करता है, बशर्ते कि वैसी प्रतिज्ञा ली हो । १
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प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहे - इन छह प्रकार की प्रतिज्ञाओं में से परिहारविशुद्धिक या यथालन्दिक भिक्षु अपनी शक्ति, रुचि और योग्यता देखकर चाहे जिस प्रतिज्ञा को अंगीकार करे, चाहे वह उत्तरोत्तर क्रमशः सभी प्रतिज्ञाओं को स्वीकार करे, लेकिन वह जिस प्रकार की प्रतिज्ञा ग्रहण करे, जीवन के अन्त तक उस पर दृढ़ रहे । चाहे उसका जंघाबल क्षीण हो जाए, वह स्वयं अशक्त, जीर्ण, रुग्ण या अत्यन्त ग्लान हो जाये, लेकिन स्वीकृत प्रतिज्ञा भंग न करे, उस पर अटल रहे । अपनी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए मृत्यु भी निकट दिखाई देने लगे या मारणान्तिक उपसर्ग या कष्ट आये तो वह भिक्षु भक्तप्रत्याख्यान (या भक्तपरिज्ञा) नामक अनशन (संल्लेखनापूर्वक) करके समाधिमरण का सहर्ष आलिंगन करे किन्तु किसी भी दशा में प्रतिज्ञा न तोड़े । २
/ प्रथम श्रुतस्कन्ध
इन प्रकल्पों के स्वीकार करने से लाभ साधक के जीवन में इन प्रकल्पों से आत्मबल बढ़ता है। स्वावलम्बन का अभ्यास बढ़ता है, आत्मविश्वास की मात्रा में वृद्धि होती है, बड़े से बड़े परीषह, उपसर्ग, संकट एवं कष्ट से हंसते-हंसते खेलने का आनन्द आता है। ये प्रतिज्ञाएँ भक्तपरिज्ञा अनशन की तैयारी के लिए बहुत ही उपयोगी और सहायक हैं। ऐसा साधक आगे चलकर मृत्यु का भी सहर्ष वरण कर लेता है। उसकी वह मृत्यु भी कायर की मृत्यु नहीं प्रतिज्ञा-वीर की सी मृत्यु होती है। वह भी धर्म-पालन के लिए होती है। इसीलिए शास्त्रकार इस मृत्यु को संलेखनाकर्ता के काल-पर्याय के समान मानते हैं। इतना ही नहीं, इस मृत्यु को वे कर्म या संसार का सर्वथा अन्तर करने वाली, मुक्ति-प्राप्ति में साधक मानते हैं । ३
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सूत्र /
भक्त-परिज्ञा-अनशन - भक्त-परिज्ञा- अनशन का दूसरा नाम 'भक्तप्रत्याख्यान' भी है। इसके द्वारा समाधिमरण प्राप्त करने वाले भिक्षु के लिए शास्त्रों में विधि इस प्रकार बताई है कि वह जघन्य (कम से कम) ६ मास, मध्यम ४ वर्ष, उत्कृष्ट १२ वर्ष तक कषाय और शरीर की संलेखना एवं तप करे। इस प्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के आचरण से कर्म - निर्जरा करे और आत्म-विकास के सर्वोच्च शिखर को प्राप्त करे । *
॥ पंचम उद्देशक समाप्त. ॥
(क)
आचा० शीला० टीका पत्रांक २८२
(ख) आचारांग (आ० श्री आत्माराम जी महाराज कृत टीका), पृष्ठ ५९१
आचा० शीला० टीका पत्रांक २८२
आचा० शीला० टीका पत्रांक २८२
(क) आचारांग (आ० श्री आत्माराम जी म० कृत टीका) पृष्ठ ५९२
(ख)
संलेखना के विषय में विस्तारपूर्वक जानने के इच्छुक देखें - 'संलेखना : एक श्रेष्ठ मृत्युकला' (लेखक : मालवकेशरी श्री सौभाग्यमल जी म०) प्रवर्तक पूज्य अम्बालालजी म० अभिनन्दन ग्रन्थ पृ० ४०४ ।