Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र / प्रथम श्रुतस्कन्ध
स्वाद में लोलुप और गृद्ध न हो। महामुनि स्वाद के लिए नहीं, अपितु संयमी जीवन-यापन के लिए भोजन करे । ' 'गच्छाचारपइन्ना' में भी बताया है कि जैसे पहिये को बराबर गति में रखने के लिए तेल दिया जाता है, उसी प्रकार शरीर को संयम यात्रा के योग्य रखने के लिए आहार करना चाहिए, किन्तु स्वाद के लिए, रूप के लिए, वर्ण (यश) के लिए या बल (दर्प) के लिए नहीं।
इसी अध्ययन में पहले के सूत्रों में आहार से सम्बद्ध गवेषणैषणा के ३२ और ग्रहणैषणा के १० यों ४२ दोषों से रहित निर्दोष आहार लेने का निर्देश किया गया था। अब इस सूत्र में शास्त्रकार ने 'परिभोगैषणा' के पाँच दोषों(अंगार, धूम आदि) से बचकर आहार करने का संकेत किया है। अंगार आदि ५ दोषों के कारण तो राग-द्वेष-मोह आदि ही हैं। इन्हें मिटाए बिना स्वाद - विमोक्ष सिद्ध नहीं हो सकता ।
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इसीलिए चूर्णि मान्य पाठान्तर में स्पष्ट कर दिया गया है कि मनोज्ञ ग्रास को आदर - रुचिपूर्वक और अमनोज्ञ अरुचिकर को अनादर - अरुचिपूर्वक मुँह में इधर-उधर न चलाए। इस प्रकार निगल जाए कि उस पदार्थ के स्वाद की अनुभूति मुँह के जिस भाग में कौर रखा है, उसी भाग को हो, दूसरे को नहीं। मूल में तो आहार के साथ राग-द्वेष, मोहादि का परित्याग करना ही अभीष्ट है।
संलेखना एवं इंगितमरण
२२४. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति 'से गिलामि च खलु अहं इमंसि समए इमं सरीरगं अणुपुव्वेण ५ परिवहित्तए' से आणुपुव्वेण आहारं संवट्टेज्जा, आणुपुव्वेण आहारं संवट्टेत्ता कसाए पतणुए किच्चा समाहियच्चे फलगावयट्ठी उट्ठाय भिक्खू' अभिणिव्वुडच्चे अणुपविसित्ता गामं वा णगरं वा खेडं वा कब्बडं वा मडंबं वा पट्टणं वा दोणमुहं वा आगरं वा आसमं वा संणिवेसं वा णिगमं वा रायहाणिं वा तणाई जाएज्जा, तणाई जाएत्ता से त्तमायाए एगंतमवक्कमिज्जा, एगंतमवक्कमित्ता अप्पंडे अप्पपाणे अप्पबीए अप्पहरिए अप्पोसे अप्पोदए अप्पुत्तिंगपणग-दगमट्टिय-मक्कडासंताणए पडिलेहिय पडिलेहिय पमज्जिय पमज्जिय तणाई संथरेज्जा, तणाई संथtत्ता एत्थ वि सम इत्तिरियं " कुज्जा ।
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तं सच्चं सच्चवादी ओए तिण्णे छिण्णकहंकहे आतीतट्टे अणातीते चिच्चाण भेदुरं कायं संविधुणिय । विरूवरूवे परीसहोवसग्गे अस्सि विस्संभणयाए भैरवमणुचिण्णे । तत्थावि तस्स कालपरियाए । से वि तत्थ
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अलोलो न रसे गिद्धो, जिंब्भादंतो अमुच्छिओ ।
न रसट्ठाए भुंजिज्जा, जवणट्ठाए महामुणी ॥ उत्तरा० अ० ३५ गा० १७
तंपि रूवरसत्थं, न य वण्णत्थं न चेव दप्पत्थं । संजमभरवहणत्थं अक्खोवगं व वहणत्थं ॥
- गच्छाचारपइन्ना गा० ५८
आचारांग वृत्ति पत्रांक २८३
आचारांग चूर्णि, आचारांग मूलपाठटिप्पण सूत्र २२३
इसके बदले चूर्णिकार ने 'से अणुपुव्वीए आहारं संवट्टित्ता' पाठान्तर मानकर अर्थ किया है - गिलाणो अणुपुव्वीए आहारं सम्मं संवट्टेइ, यदुक्तं भवति संखिवति, अणुपुव्वीते संवट्टिता।" अर्थात् - वह ग्लान भिक्षु क्रमशः आहार को सम्यक्रूरूप से कम
करता जाता है, क्रमशः आहार को कम करके ... ।
इसके बदले चूर्ण में 'अभिणिव्वुडप्पा' पाठ है, अर्थ होता है - शान्तात्मा ।
'इत्तिरियं' का अर्थ चूर्णि में किया गया है- 'इत्तिरियं णाम अपकालियं' इत्वरिक अर्थात् अल्पकालिक ।