Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
जणवयंतरेसु वा संतेगतिया जणा लूसगा भवंति अदुवा फासा फुसंति। ते फासे पुट्ठो धीरो अधियासए ओए समितदंसणे।
दयं लोगस्स जाणित्ता पाईणं पडीणं दाहिणं उवीणं आइक्खे विभए किट्टे वेदवी ।
से उट्ठिएसु वा अणुट्ठिएसु वा सुस्सूसमाणेसु पवेदए संतिं विरतिं उवसमं णिव्वाणं सोयवियं अजवियं मद्दवियं लाघवियं अणतिवत्तियं सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूताणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं, अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खेजा।
१९७. अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खमाणे णो अत्ताणं आसादेज्जा णो परं आसादेजा णो अण्णाई पाणाई भूयाइं जीवाई सत्ताइं आसादेजा।
से अणासादए अणासादमाणे वज्झमाणाणं पाणाणं भूताणं जीवाणं सत्ताणं जहा से दीवे असंदीणे एवं से भवति सरणं महामुणी।
एवं से उद्विते ठितप्पा अणिहे अचले चले अबहिलेस्से परिव्वए । संखाय पेसलं धम्मं दिट्ठिमं परिणिव्वुडे ।
१९८. तम्हा संगं ति पासहा। गंथेहिं गढिताणरा विसण्णा कामवंता। तम्हा लूहातो णो परिवित्तसेज्जा। जस्सिमे आरंभा सव्वतो सव्वत्ताए सुपरिण्णाता भवंति जस्सिमे लूसिणो णो परिवित्तसंति, से वंता कोधं च माणं च मायं च लोभं च । एस तिउट्टे वियाहिते त्ति बेमि।
कायस्स वियावाए एस संगामसीसे वियाहिए । से हु पारंगमे मुणी । अवि हम्ममाणे फलगावतट्ठी कालोवणीते कंखेज कालं जाव सरीरभेदो त्ति बेमि।
॥पंचम उद्देशक सम्मत्तो ॥ १९६. वह (धूत/श्रमण) घरों में, गृहान्तरों में (घरों के आस-पास), ग्रामों में, ग्रामान्तरों (ग्रामों के बीच) में, नगरों में, नगरान्तरों (नगरों के अन्तराल) में, जनपदों में या जनपदान्तरों (जनपदों के बीच) में (आहारादि के लिए विचरण करते हुए अथवा कायोत्सर्ग में स्थित मुनि को देखकर) कुछ विद्वेषी जन हिंसक-(उपद्रवी) हो जाते हैं, (वे
अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग देते हैं)। अथवा (सर्दी, गर्मी, डाँस, मच्छर आदि परिषहों के) स्पर्श (कष्ट) प्राप्त होते हैं। उनसे स्पृष्ट होने पर धीर मुनि उन सबको (समभाव से) सहन करे।
राग और द्वेष से रहित (निष्पक्ष) सम्यग्दर्शी (या समितदर्शी) एवं आगमज्ञ मुनि लोक (=प्राणिजगत) पर दया/अनुकम्पा भावपूर्वक पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण सभी दिशाओं और विदिशाओं में (स्थित) जीवलोक को धर्म का आख्यान (उपदेश) करे। उसका विभेद करके, धर्माचरण के सुफल का प्रतिपादन करे। १. 'वज्झमाणाणं' के बदले चूर्णि में बुज्झमाणाणं पाणाणं' पाठ स्वीकृत है, जिसका अर्थ है - जो प्राण, भूत, जीव और सत्त्व
बोध पाए हुए हैं। अथवा बहिज्जमाणाणं वा संसारसमुद्दतेणं अर्थात् - संसार समुद्र का अन्त (पार) करके बाहर होने वाले। इसके बदले 'काम-अक्कंता''कामधिष्पिता' पाठ भी मिलते हैं। अर्थ क्रमशः यों हैं - काम से आक्रान्त या कामग्रस्त या कामगृहीत। 'वियावाए' के बदले पाठान्तर - विवाघाए, वियाघाओ, विओपाए वियोवाते विउवाते आदि हैं। क्रमशः अर्थ यों हैं - विशेष रूप से व्याघात, व्याघात, (विनाश), व्यापात (विशेष रूप से पात)।