Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध वचन, काया से जिसका आत्मा गुप्त हो, (२) सदा दान्त हो, (३) संसार-स्रोत जिसने तोड़ दिए हों, (४) जो आस्रव-रहित हो, वही शुद्ध, परिपूर्ण और अद्वितीय धर्म का व्याख्यान करता है।'
'लूहातो' - का अर्थ वृत्तिकार ने किया है - संग या आसक्ति रहित - लूखा - रूक्ष अर्थात् - संयम। २
'संगामसीसे' - शरीर का विनाश-काल (मरण) - वस्तुतः साधक के लिए संग्राम का अग्रिम मोर्चा है। मृत्यु का भय संसार में सबसे बड़ा भय है। इस भय पर विजय पाने वाला, सब प्रकार के भयों को जीत लेता है। इसलिए मृत्यु निकट आने पर या मारणान्तिक वेदना होने पर शांत, अविचल रहना - मृत्यु के मोर्चे को जीतना है। इस मोर्चे पर जो हार खा जाता है, वह प्रायः सारे संयमी जीवन की उपलब्धियों को खो देता है। उस समय शरीर के प्रति सर्वथा निरपेक्ष और निर्भय होना जरूरी है, अन्यथा की-कराई सारी साधना चौपट हो जाती है। शरीर के प्रति मोह-ममत्व या आसक्ति से बचने के लिए पहले से ही कषाय और शरीर की संलेखना (कृशीकरण) करनी होती है। इसके लिए दोनों तरफ से छीले हुए फलक की उपमा देकर बताया है - जैसे काष्ठ को दोनों ओर से छीलकर उसका पाटिया- फलक बनाया जाता है, वैसे ही साधक शरीर और कषाय से कश-दुबला हो जाता है। ऐसे साधक को 'फलगाव-तट्ठी' उपमा दी गयी है।
'कालोवणीते' शब्द से शास्त्रकार ने यह व्यक्त किया है कि काल (आयुष्य/क्षय की प्रतीक्षा की जानी चाहिए)। ___चूर्णिकार ने 'कालोवणीते' शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है - कालोपनीत शब्द से यह ध्वनित होता है कि काल (मृत्यु) प्राप्त न हो तो मरने का उद्यस नहीं करना चाहिए। इस सम्बन्ध में आचार्य नागार्जुन का अभिमत साक्षी है - (साधक विचार करता है -) "यदि मैं आयुष्य क्षय न होने की स्थिति में मृत्यु प्राप्त कर जाऊँगा तो सुपरिणाम का लोप, अकीर्ति और दुर्गतिगमन हो जाएगा।"
इसलिए शास्त्रकार कहते हैं - 'कंखेज कालं जाव सरीरभेदो' - जब तक शरीर छुटे नहीं तब तक काल (मृत्यु) की प्रतीक्षा करे।
'कालोपणीते' का आशय वृत्तिकार प्रगट करते हैं - मृत्युकाल ने परवश कर दिया, इसलिए १२ वर्ष तक संलेखना द्वारा अपने आपको कृश करके पर्वत की गुफा आदि स्थण्डिल भूमि में पादपोपगमन, इंगित-मरण या भक्तपरिज्ञा, इनमें से किसी एक द्वारा अनशन-स्थित होकर मरण (आयुष्य क्षय) तक यानी आत्मा से शरीर पृथक् होने तक, आकांक्षा-प्रतीक्षा करे।
___ 'अवि हम्ममाणे' - यह समाधि-मरण के साधक का विशेषण है। इसके द्वारा सूचित किया गया है कि साधक को अन्तिम समय में परीषहों और उपसर्गों से घबराना नहीं चाहिए, पराजित न होना चाहिए। बल्कि इनसे
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सूत्रकृतांग श्रु०१ अ० ११ गाथा २४ आचा० शीला० टीका पत्रांक २३३ "कालग्रहणा 'कालोवणीतो' ग्रहणाद्वा ण अपप्ते काले मरणस्स उज्जमियत्वं। एत्थ णागजुणा सक्खिणो- 'जति खल अहं अपुण्णे आउत्ते उकालं करिस्सामि तो - परिण्णालोवे अकित्ती दुग्गतिगमणं च भविस्सरं।' सो एवं कालोवणीतो।"- आचारांग चूर्णि पृ० ६८ आचा० शीला० टीका पत्र २३४
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