Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध आचरण के लिए इतनी उपयुक्त नहीं होती।
संबुज्झमाणा - सम्बोधि प्राप्त करना मुनि-दीक्षा से पूर्व अनिवार्य है । सम्बोधि पाए बिना मुनिधर्म में दीक्षित होना खतरे से खाली नहीं है। ___साधक को तीन प्रकार से सम्बोधि प्राप्त होती है - स्वयंसम्बुद्ध हो, प्रत्येक बुद्ध हो अथवा बुद्ध-बोधित हो। प्रस्तुत सूत्र में बुद्ध - बुद्धबोधित (किसी प्रबुद्ध से बोध पाये हुए) साधक की अपेक्षा से कथन है। २
सोच्चावयं मेधावी पंडियाण निसामिया - इस पंक्ति का अर्थ चूर्णिकार ने कुछ भिन्न किया है - पंडितोंगणधरों के द्वारा सूत्ररूप में निबद्ध मेधावियों - तीर्थंकरों के; वचन सुनकर तथा हृदय में धारण करके....। मध्यमवय में प्रव्रजित होते हैं। ___ते अणवकंखमाणा' का तात्पर्य है - "वे जो गृहवास से मुनिधर्म में दीक्षित हुए हैं और मोक्ष की ओर जिन्होंने प्रस्थान किया है, काम-भोगों की आकांक्षा नहीं रखते।"
अणतिवातेमाणा अपरिग्गहमाणा - ये दो शब्द प्राणातिपात-विरमण तथा परिग्रह-विरमणं महाव्रत के द्योतक हैं। आदि और अन्त के महाव्रत का ग्रहण करने से मध्य के मृषावाद-विरमण, अदत्तादान-विरमण और मैथुन-विरमण महाव्रतों का ग्रहण हो जाता है। ऐसे महाव्रती अपने शरीर के प्रति भी ममत्वरहित होते हैं । इन्हें ही तीर्थंकर गणधर आदि द्वारा महानिर्ग्रन्थ कहा गया है।
अगंथे - जो बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थों से विमुक्त हो गया है, वह अग्रन्थ है । अग्रन्थ या निर्ग्रन्थ का एक ही आशय है।
उववायं-चयणं - उपपात (जन्म) और च्यवन (मरण) ये दोनों शब्द सामान्यतः देवताओं के सम्बन्ध में प्रयुक्त होते हैं। इससे यह तात्पर्य हो सकता है कि दिव्य शरीरधारी देवताओं का शरीर भी जन्म-मरण के कारण नाशमान है, तो फिर मनुष्यों के रक्त, माँस, मज्जा आदि अशुचि पदार्थों से बने शरीर की क्या बिसात है? इसी दृष्टि से चिन्तन करने पर इन पदों से शरीर की क्षण-भंगुरता का निदर्शन भी किया गया है कि शरीर' जन्म और मृत्यु के चक्र के बीच चल रहा है, यह क्षणभंगुर है, यह चिन्तन कर आहार आदि के प्रति अनासक्ति रखे।' अकारण-आहार-विमोक्ष
२१०. आहरोवचया देहा परीसहपभंगुणो । पासहेगे सव्विंदिएहिं परिगिलायमाणेहिं ।
ओए दयं दयति जे संणिधाणसत्थस्स खेत्तण्णे, से भिक्खू कालण्णे बालण्णे मातण्णे खणण्णे विणयण्णे समयण्णे परिग्गह अममायमाणे कालेणुट्ठाई अपडिण्णे दुहतो छेत्ता णियाति ।
२१०. शरीर आहार से उपचित (संपुष्ट) होते हैं, परीषहों के आघात से भग्न हो जाते हैं; किन्तु तुम देखो, आहार के अभाव में कई एक साधक क्षुधा से पीड़ित होकर सभी इन्द्रियों (की शक्ति) से ग्लान (क्षीण) हो जाते हैं। राग-द्वेष से रहित भिक्षु (क्षुधा-पिपासा आदि परीषहों के उत्पन्न होने पर भी) दया का पालन करता है।
जो भिक्षु सन्निधान - (आहारादि के संचय) के शस्त्र (संयमघातक प्रवृत्ति) का मर्मज्ञ है; (वह हिंसादि
आचा० शीला० टीका पत्रांक २७४ आचा० शीला० टीका पत्रांक २७४
२. ४.
आचा० शीला० टीका पत्रांक २७४ आचारांग चूर्णि-मूलपाठ टिप्पण पृ० ४७