Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध पाणा पाणे किलेसंति । पास लोए महब्भयं । बहुदुक्खा हु जंतवो। सत्ता कामेहिं माणवा। अबलेण वहं गच्छंति सरीरेण पभंगुरेण ।
अट्टे से बहुदुक्खे इति बाले पकुव्वति ।
एते रोगे बहू णच्चा आतुरा परितावए । णालं पास ।अलं तवेतेहिं। एतं पास मुणी ! महब्भयं । णातिवादेज्ज कंचणं । . १७९. अच्छा तू देख वे (मोह-मूढ मनुष्य) उन (विविध) कुलों में आत्मत्व (अपने-अपने कृत कर्मों के फलों को भोगने) के लिए निम्नोक्त रोगों के शिकार हो जाते हैं-(१) गण्डमाला, (२) कोढ़, (३) राजयक्ष्मा (तपेदिक), (४) अपस्मार (मृगी या मूर्छा), (५) काणत्व (कानापन), (६) जड़ता (अंगोपांगों में शून्यता), (७) कुणित्व (ट्रॅटापन, एक हाथ या पैर छोटा और एक बड़ा), (८) कुबड़ापन, (९) उदररोग (जलोदर, अफारा, उदरशूल आदि), (१०) मूकरोग (गूंगापन), (११) शोथरोग (सूजन), (१२) भस्मकरोग, (१३) कम्पनवात्, (१४) पीठसपी-पंगुता, (१५) श्लीपदरोग (हाथीपगा) और (१६) मधुमेह; ये सोलह रोग क्रमशः कहे गये हैं।
___ इसके अनन्तर (शूल आदि मरणान्तक) आतंक (दुःसाध्य रोग) और अप्रत्याशित (दुःखों के) स्पर्श प्राप्त होते हैं।
. १८०. उन (रोगों-आतंकों और अनिष्ट दुःखों से पीड़ित) मनुष्यों की मृत्यु का पर्यालोचन कर, उपपात (जन्म) और च्यवन (मरण) को जानकर तथा कर्मों के विपाक (फल) का भली-भाँति विचार करके उसके यथातथ्य (यथार्थस्वरूप) को सुनो।
(इस संसार में) ऐसे भी प्राणी बताए गए हैं, जो अन्धे होते हैं और अन्धकार में ही रहते हैं। वे प्राणी उसी (नाना दु:खपूर्ण अवस्था) को एक बार या अनेक बार भोगकर तीव्र और मन्द (ऊँचे-नीचे) स्पर्शों का प्रतिसंवेदन करते हैं। ----
बुद्धों (तीर्थंकरों) ने इस तथ्य का प्रतिपादन किया है।
(और भी अनेक प्रकार के) प्राणी होते हैं, जैसे - वर्षज (वर्षा ऋतु में उत्पन्न होने वाले मेंढक आदि) अथवा वासक (भाषालब्धि सम्पन्न द्वीन्द्रियादि प्राणी), रसज (रस में उत्पन्न होने वाले कृमि आदि जन्तु), अथवा रसग (रसज्ञा संज्ञी जीव), उदक रूप - एकेन्द्रिय अप्कायिक जीव या जल में उत्पन्न होने वाले कृमि या जलचर जीव, आकाशगामी - नभचर पक्षी आदि।
वे प्राणी अन्य प्राणियों को कष्ट देते हैं (प्रहार से लेकर प्राणहरण तक करते हैं)। (अतः) तू देख, लोक में महान् भय (दु:खों का महाभय) है।
संसार में (कर्मों के कारण) जीव बहुत दुःखी हैं । (बहुत-से) मनुष्य काम-भोगों में आसक्त हैं । (जिजीवषा में आसक्त मानव) इस निर्बल (निःसार और स्वतः नष्ट होने वाले) शरीर को सुख देने के लिए प्राणियों के वध की इच्छा करते हैं (अथवा कर्मोदयवश अनेक बार वध - विनाश को प्राप्त होते हैं)।
. वेदना से पीड़ित वह मनुष्य बहुत दुःख पाता है । इसलिए वह अज्ञानी (वेदना के उपशमन के लिए) प्राणियों १. 'पकुव्वति' के बदले 'पगब्भति' पाठ चूर्णि में है। अर्थ होता है - प्रगल्भ (धृष्टता) करता है।