Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र/ प्रथम श्रुतस्कन्ध
मैं कहता हूँ – जैसे एक कछुआ होता है, उसका चित्त (एक) महाह्रद ( सरोवर) में लगा हुआ है। वह सरोवर शैवाल और कमल के पत्ते से ढका हुआ है। वह कछुआ उन्मुक्त आकाश को देखने के लिए (कहीं) छिद्र को भी नहीं पा रहा है।
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जैसे वृक्ष (विविध शीत-ताप-तूफान तथा प्रहारों को सहते हुए भी) अपने स्थान को नहीं छोड़ते, वैसे ही कुछ लोग हैं (जो अनेक सांसारिक कष्ट, यातना, दुःख आदि बार-बार पाते हुए भी गृहवास को नहीं छोड़ते ) ।
इसी प्रकार कई (गुरुकर्मा) लोग अनेक ( दरिद्र, सम्पन्न, मध्यचित्त आदि) कुलों में जन्म लेते हैं, (धर्माचरण के योग्य भी होते हैं), किन्तु रूपादि विषयों में आसक्त होकर ( अनेक प्रकार के शारीरिक-मानसिक दुःखों से, उपद्रवों से और भयंकर रोगों से आक्रान्त होने पर) करुण विलाप करते हैं, (लेकिन इस पर भी वे दुःखों के आवासरूप गृहवास को नहीं छोड़ते ) । ऐसे व्यक्ति दुःखों के हेतुभूत कर्मों से मुक्त नहीं हो पाते।
विवेचन - आत्मज्ञान से शून्य पूर्वग्रह तथा पूर्वाध्यास से ग्रस्त व्यक्तियों की करुणदशा का वर्णन करते हुए शास्त्रकार ने दो रूपक प्रस्तुत किए हैं :
(१) शैवाल - एक बड़ा विशाल सरोवर था । वह सघन शैवाल और कमल - पत्रों (जलवनस्पतियों) से आच्छादित रहता था। उसमें अनेक प्रकार के छोटे-बड़े जलचर जीव निवास करते थे। एक दिन संयोगवश उस सघन शैवाल में एक छोटा-सा छिद्र हो गया। एक कछुआ अपने पारिवारिक जनों से बिछुड़ा भटकता हुआ उसी छिद्र (विवर) के पास आ पहुँचा। उसने छिद्र से बाहर गर्दन निकाली, आकाश की ओर देखा तो चकित रह गया। नील गगन में नक्षत्र और ताराओं को चमकते देखकर वह एक विचित्र आनन्द में मग्न हो उठा। उसने सोचा - "ऐसा अनुपम दृश्य तो मैं अपने पारिवारिक जनों को भी दिखाऊँ।" वह उन्हें बुलाने के लिए चल पड़ा। गहरे जल में पहुँचकर उसने पारिवारी जनों को उस अनुपम दृश्य की बात सुनाई तो पहले तो किसी ने विश्वास नहीं किया, फिर उसके आग्रहवश सब उस विवर को खोजते हुए चल पड़े। किन्तु इतने विशाल सरोवर में उस लघु छिद्र का कोई पता नहीं चला, वह विवर उसे पुनः प्राप्त नहीं हुआ ।
रूपक का भाव इस प्रकार है - संसार एक महाह्रद है। प्राणी एक कछुआ है। कर्मरूप अज्ञान - शैवाल से यह वृत्त है। किसी शुभ संयोगवश सम्यक्त्व रूपी छिद्र (विवर) प्राप्त हो गया। संयम साधना के आकाश में चमकते शान्ति आदि नक्षत्रों को देखकर उसे आनन्द हुआ। पर परिवार के मोहवश वह उन्हें भी यह बताने के लिए वापस घर जाता है, गृहवासी बनता है, बस, वहाँ आसक्त होकर भटक जाता है। हाथ से निकला यह अवसर (विवर) पुन: प्राप्त नहीं होता और मनुष्य खेदखिन्न हो जाता है। संयम आकाश के दर्शन पुनः दुर्लभ हो जाते हैं।
( २ ) वृक्ष - सदी, गर्मी, आंधी, वर्षा आदि प्राकृतिक आपत्तियों तथा फल-फूल तोड़ने के इच्छुक लोगों द्वारा पीड़ा, यातना, प्रहार आदि कष्टों को सहते हुए वृक्ष जैसे अपने स्थान पर स्थित रहता है, वह उस स्थान को छोड़ नहीं वैसे ही गृहवास में स्थित मनुष्य अनेक प्रकार के दुःखों, पीड़ाओं, १६ महारोगों से आक्रान्त होने पर भी मोहमूढ बने हुए दुःखालय रूप गृहवास का त्याग नहीं कर पाते ।
पाता,
प्रथम उदाहरण एक बार सत्य का दर्शन कर पुनः मोहमूढ अवसर - भ्रष्ट आत्मा का है, जो पूर्वाध्यास या पूर्वसंस्कारों के कारण संयम पथ का दर्शन करके भी पुनः उससे विचलित हो जाती है।
दूसरा उदाहरण अब तक सत्य-दर्शन से दूर अज्ञानग्रस्त, गृहवास में आसक्त आत्मा का है।