Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
करना, निर्दोष भिक्षा या उसका ग्रहण करना, निर्दोष भिक्षा का अन्वेषण-गवेषण करना, इन अर्थों में प्रयुक्त है। एषणा के मुख्यतः तीन प्रकार हैं - (१) गवेषणैषणा, (२) ग्रहणैषणा, (३) ग्रासैषणा या परिभोगैषणा । गवेषणैषणा के ३२ दोष हैं - १६ उद्गम के हैं, १६ उत्पादना के हैं । ग्रहणैषणा के १० दोष हैं और ग्रासैषणा के ५ दोष हैं । इन ४७ दोषों से बचकर आहार, धर्मोपकरण, शय्या आदि वस्तुओं का अन्वेषण, ग्रहण और उपभोग (सेवन) करना शुद्ध एषणा कहलाती है। आहारांदि के अन्वेषण से लेकर सेवन करने तक मुनि की समस्त एषणाएँ शुद्ध होनी चाहिए, यही इस पंक्ति का आशय है।
एकचर्या और भयंकर परीषह-उपसर्ग - धूतवादी मुनि कर्मों को शीघ्र क्षय करने हेतु एकल विहार प्रतिमा अंगीकार करता है। यह साधना सामान्य मुनियों की साधना से कुछ विशिष्टतरा होती है। एकचर्या की साधना में मुनि की सभी एषणाएँ शुद्ध हों, इसके अतिरिक्त मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के प्राप्त होने पर राग और द्वेष न करे। एकाकी साधु को रात्रि में जन-शून्य स्थान या श्मशान आदि में कदाचित् भूत-प्रेतों, राक्षसों के भयंकर रूप दिखाई दें या शब्द सुनाई दें या कोई हिंस्र या भयंकर प्राणी प्राणों को क्लेश पहुँचाएँ, उस समय मुनि को उंन कष्टों का स्पर्श होने पर तनिक भी क्षुब्ध न होकर धैर्य से समभावपूर्वक सहना चाहिए; तभी उसके पूर्व संचित कर्मों का धूनन - क्षय हो सकेगा।
॥ बिइओ उद्देसओ समत्तो ॥
तइओ उद्देसओ
तृतीय उद्देशक
उपकरण-लाघव
१८७. एतं खु मुणी आदाणं सदा सुअक्खातधम्मे विधूतकप्पे णिझोसइत्ता ।
जे अचेले परिसिते तस्स णं भिक्खुस्स णो एवं भवति - परिजुण्णे मे वत्थे, वत्थं जाइस्सामि, सुत्तं जाइस्सामि, सूई जाइस्सामि, संधिस्सामि, सीविस्सामि, उक्कसिस्सामि, वोक्कसिस्सामि ५, परिहिस्सामि पाउणिस्सामि। १. (क) आचा०शीला० टीका पत्रांक २२०, (ख) उत्तरा० अ० २४ गा० ११-१२,
(ग) पिण्डनियुक्ति गा० ९२-९३, गा० ४०८ पिण्डनियुक्ति में औद्देशिक आदि १६ उद्गम-गवेषणा के दोषों का तथा १६ उत्पादना-गवेषणा के दोषों (धाइ-दुई निमित्ते आदि) का वर्णन है। शंकित आदि १० ग्रहणैषणा (एषणा) के दोष हैं तथा संयोजना अप्रमाण आदि५ दोष ग्रासैषणा के हैं; कुल मिलाकर एषणा के ये ४७ दोष हैं। उद्गम दोषों का वर्णन स्थानांग (९।६२) उत्पादना दोषों का निशीथ (१२) दशवैकालिक (५) तथा संयोजना दोषों का वर्णन भगवती (७ । १) आदि स्थानों पर भी मिलता है। विस्तार के लिए देखें इसी सूत्र में पिंडैषणा अध्ययन सूत्र ३२४ का विवेचन। आचा० शीला० टीका पत्रांक २२०