Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
(५) शील सम्प्रेक्षा - (१) महाव्रतों की साधना, (२) तीन (मन-वचन-कायां की) गुप्तियाँ (सुरक्षास्थिरता), (३) पञ्चेन्द्रिय दम (संयम) और (४) क्रोधादि चार कषायों का निग्रह - ये चार प्रकार के शील हैं, चिन्तन की गहराइयों में उतर कर अपने में इनका सतत निरीक्षण करना शील-सम्प्रेक्षा है।
(६) लोक में सारभूत परमतत्त्व (ज्ञान-दर्शन-चारित्रात्मक मोक्ष) का श्रवण करना। (७) काम-रहित (इच्छाकाम और मदनकाम से रहित अकाम होना)। (८) झंझा (माया या लोभेच्छा) से रहित होना।
इन अष्टविध उपायों का सहारा लेकर मुनि अपने मार्ग में सतत आगे बढ़ता रहे । अन्तर लोक का युद्ध
१५९. इमेण चेव जुझााहि, किं ते जुझेण बज्झतो ? जुद्धारिहं २ खलु दुल्लभं । जेहत्थ कुसलेहिं परिणाविवेगे भासिते । चुते हु बाले गब्भातिसु रजति । अस्सि चेतं पवुच्चति रूवंसि वा छणंसि वा । से हु एगे संविद्धपहे २ मुणी अण्णहा लोगमुवेहमाणे । १६०. इति कम्मं परिणाय सव्वसो से ण हिंसति, संजमति, णो पगब्भति, उवेहमाणे पत्तेयं सातं, वण्णादेसी णारभे कंचणं सव्वलोए एगप्पमुहे विदिसप्पतिण्णे णिविण्णचारी आते पयासु । से वसुमं सव्वसमप्पागतपण्णाणेणं अप्पाणेणं अकरणि पावं कम्मं तं णो अण्णेसी । १५९. इसी (कर्म-शरीर) के साथ युद्ध कर, दूसरों के साथ युद्ध करने में तुझे क्या मिलेगा? (अन्तर-भाव) युद्ध के योग (साधन) अवश्य ही दुर्लभ है। जैसे कि तीर्थंकरों (मार्ग-दर्शन-कुशल) ने इस (भावयुद्ध) के परिज्ञा और विवेक (ये दो शस्त्र) बताए हैं।
(मोक्ष-साधना के लिए उत्थित होकर) भ्रष्ट होने वाला अज्ञानी साधक गर्भ आदि (दुःख-चक्र) में फँस जाता है। इस आर्हत् शासन में यह कहा जाता है - रूप (तथा रसादि) में एवं हिंसा (उपलक्षण से असत्यादि) में (आसक्त होने वाला उत्थित होकर भी पुनः पतित हो जाता है)।
केवल वही एक मुनि मोक्षपथ पर अभ्यस्त (आरूढ़) रहता है, जो (विषय-कषायादि के वशीभूत एवं हिंसादि में प्रवृत्त) लोक का अन्यथा (भिन्नदृष्टि से) उत्प्रेक्षण (गहराई से अनुप्रेक्षण) करता रहा है अथवा जो (कषाय-विषयादि) लोक की उपेक्षा करता रहता है। १. आचा० शीला० टीका पत्रांक १९०
'जुद्धारिहं' के बदले 'जुद्धारियं च दुलहं' पाठ है। इसका अर्थ वृत्तिकार ने किया है - युद्ध दो प्रकार के होते हैं, अनार्ययुद्ध और आर्ययुद्ध। तत्रानार्यसंग्रामयुद्धं, परीषहादि रिपुयुद्धं त्वार्य, तदुर्लभमेव तेन युद्धयस्व। - अनार्ययुद्ध है शस्त्रास्त्रों से संग्राम करना, और परीषहादि शत्रुओं के साथ युद्ध करना आर्ययुद्ध है, वह दुर्लभही है। अतः परिषहादि के साथ आर्ययुद्ध करो। 'संविद्धपहे' के बदले 'संविद्धभये' पाठान्तर भी है। जिसका अर्थ है - जिसने भय को देख लिया है। 'लोगमवेहमाणे' के बदले चूर्णि में 'लोगं उविक्खमाणे' पाठ है, जिसका अर्थ होता है - लोक की उपेक्षा या उत्प्रेक्षा (निरीक्षण) करता हुआ।