Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पंचम अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र १७०-१७१
१६७ है। (न ही हनन करने वाले का अनुमोदन करता है।)
कृत-कर्म के अनुरूप स्वयं को ही उसका फल भोगना पड़ता है, इसलिए किसी का हनन करने की इच्छा मत करो।
विवेचन - 'तुम सि णाम तं चेव' इत्यादि सूत्र में भगवान् महावीर ने आत्मौपम्यवाद (आयतुले पयासु) का निरूपण करके सर्व प्रकार की हिंसा से विरत होने का उपदेश दिया है। दो भिन्न आत्माओं के सुख या दुःख की अनुभूति (संवेदन) की समता सिद्ध करना ही इस सूत्र का उद्देश्य है । इसका तात्पर्य है - "दूसरे के द्वारा किसी भी रूप में तेरी हिंसा की जाने पर जैसी अनुभूति तुझे होती है, वैसी ही अनुभूति उस प्राणी को होगी, जिसकी तू किसी भी रूप में हिंसा करना चाहता है। ' इसका एक भाव यह भी है कि तू किसी अन्य की हिंसा करना चाहता है, पर वास्तव में यह उसकी (अन्य की) हिंसा नहीं, किन्तु तेरी शुभवृत्तियों की हिंसा है, अतः तेरी यह हिंसा-वृत्ति एक प्रकार से आत्म-हिंसा (स्व-हिंसा) ही है।"
'अंजू' का अर्थ ऋजु - सरल, संयम में तत्पर, प्रबुद्ध साधु होता है। यहाँ पर यह आशय प्रतीत होता है - ऋजु और प्रतिबुद्धजीवी बनकर ज्ञानी पुरुष हिंसा से बचे, किसी भय, प्रलोभन या छल-बल से नहीं। २
'अणुसंवेयणमप्यालेणं' - में अनुसंवेदन का अर्थ यह भी हो सकता है कि तुमने दूसरे जीव को जिस रूप में वेदना दी है, तुम्हारी आत्मा को भी उसी रूप में वेदना की अनुभूति होगी, वेदना भोगनी होगी। आत्मा ही विज्ञाता
१७१. जे आता से विण्णाता, जे विण्णाता से आता ।
जेण विजाणति से आता । तं पडुच्च पडिसंखाए । एस * आतावादी समियाए परियाए वियाहिते त्ति बेमि।
॥ पंचमो उद्देसओ समत्तो ॥ १७१. जो आत्मा है, वह विज्ञाता है और जो विज्ञाता है, वह आत्मा है। क्योंकि (मति आदि) ज्ञानों से आत्मा (स्व-पर को) जानता है, इसलिए वह आत्मा है।
उस (ज्ञान की विभिन्न परिणतियों) की अपेक्षा से आत्मा की (विभिन्न नामों से) प्रतीति-पहचान होती है। यह आत्मवादी सम्यक्ता (सत्यता या शमिता) का पारगामी (या सम्यक् भाव से दीक्षा पर्यायवाला) कहा गया
विवेचन - 'जे आता से विण्णाता०' तथा 'जेण विजाणाति से आता' इन दो पंक्तियों द्वारा शास्त्रकार ने आत्मा का लक्षण द्रव्य और गुण दोनों अपेक्षाओं से बता दिया है । चेतन ज्ञाता द्रव्य है, चैतन्य (ज्ञान) उसका गुण है।
आचा० शीला टीका पत्रांक २०४ आचा० शीला० टीका पत्रांक २०४ आचा० शीला० टीका पत्रांक २०४ 'एस आतावादी' के बदले चूर्णि में 'एस आतावाते' पाठ है। अर्थ किया है - अप्पणो वातो आतावातो।- यह आत्मवाद है. अर्थात् आत्मा का (अपना) वाद-आत्मवाद होता है।