Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
यहाँ ज्ञान (चैतन्य) से आत्मा (चेतन) की अभिन्नता तथा ज्ञान आत्मा का गुण है, इसलिए आत्मा से ज्ञान की भिन्नता दोनों बता दी हैं। द्रव्य और गुण न सर्वथा भिन्न होते हैं, न सर्वथा अभिन्न । इस दृष्टि से आत्मा (द्रव्य) और ज्ञान (गुण) दोनों न सर्वथा अभिन्न है, न भिन्न । गुण द्रव्य में ही रहता है और द्रव्य का ही अंश है, इस कारण दोनों अभिन्न भी हैं और आधार एवं आधेय की दृष्टि से दोनों भिन्न भी हैं। दोनों की अभिन्नता और भिन्नता का सूचन भगवतीसूत्र में मिलता है -
"जीवे णं भंते ! जीवे जीवे जीवे ?"
"गोयमा, जीवे ताव नियमा जीवे, जीवे वि नियमा जीवे।" -"भंते ! जीव चैतन्य जीव है ?" "गौतम ! जीव नियमतः चैतन्य है, चैतन्य भी नियमतः जीव है।"
निष्कर्ष यह है कि ज्ञानी (ज्ञाता) और ज्ञान दोनों आत्मा हैं । ज्ञान ज्ञानी का प्रकाश है। इसी प्रकार ज्ञान की क्रिया (उपयोग) घट-पट आदि विभिन्न पदार्थों को जानने में होती है। अतः ज्ञान से या ज्ञान की क्रिया से ज्ञेय या ज्ञानी आत्मा को जान लिया जाता है। सार यह है कि जो ज्ञाता है, वह तू (आत्मा) ही है, जो तू है, वही ज्ञाता है। तेरा ज्ञान तुझ से भिन्न नहीं है।
॥ पंचम उद्देशक समाप्त ॥
छट्टो उद्देसओ षष्ठ उद्देशक
आज्ञा-निर्देश
१७२. अणाणाए एगे सोवट्ठाणा, आणाए एगे णिरुवट्ठाणा । एतं ते मा होतु । एतं कुसलस्स दंसणं । तद्दिट्टीए तम्मुत्तीए तप्पुरकारे तस्सण्णी तण्णिवेसणे अभिभूय अदक्खू । अणभिभूते पभूणिरालंबणताए, जे महं अबहिमणे । पवादेण पवायं जाणेजा सहसम्मइयाए परवागरणेणं अण्णेसिं वा सोच्चा। १७३. णिद्देसं णातिवत्तेज मेहावी सुपडिलेहिय ५ सव्वओ सव्वताए सम्ममेव समभिजाणिया। शतक ६ । उद्देशक १०, सूत्र १७४ २. आचा० शीला० टीका पत्रांक २०५ 'जे महं अबहिमणे' का चूर्णि में अर्थ यों है -जे इति णिसे, अहमेव सोजो अबहिमणो'- अर्थात् - 'जे' निर्देश अर्थ में है। जो अबहिर्मना है, वह मैं हूँ।' - वह मेरा ही अंगभूत है। 'सहसम्मुइयाए"सह संमुतियाए'ये दोनों पाठान्तर मिलते हैं। परन्तु 'सहसम्मइयाए' पाठ समुचित लगता है। 'सुपडिलेहिय' का अर्थ चूर्णि में किया गया है - 'सयं भगवता सुष्ठ पडिलेहितं विण्णात तमेव सिद्धं तं भागवतं ।' - स्वयं भगवान् ने सम्यक् प्रकार से विशेष रूप से (अपने केवलज्ञान के प्रकाश में) जाना है, वही भागवत सिद्धान्त है। .