Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध चिन्तनशक्ति, स्फुरणाशक्ति, स्मरणशक्ति, निर्णयशक्ति, निरीक्षण-परीक्षण शक्ति एक-जैसी होती है, साथ ही परिणामोंअध्यवसायों की धारा भी सबकी समान नहीं होती, न सदा-सर्वदा शुभ या अशुभ ही होती है । अतीन्द्रिय (अनधिगम्य) पदार्थों के विषय में तो वह 'तमेव सच्चं०' का आलम्बन लेकर सम्यक् (सत्य) का ग्रहण और निश्चय कर सकता है, किन्तु जो पदार्थ इन्द्रियप्रत्यक्ष हैं, या जो व्यवहार-प्रत्यक्ष हैं, उनके विषय में सम्यक्-असम्यक् का निर्णय कैसे किया जाए? इसके सम्बन्ध में सूत्र १६९ में पहले तो साधक के दीक्षा-काल और पाश्चात्काल को लेकर सम्यक्असम्यक् की विवेचना की है, फिर उसका निर्णय दिया है। जिसका अध्यवसाय शुद्ध है, जिसकी दृष्टि मध्यस्थ एवं निष्पक्ष है, जिसका हृदय शुद्ध व सत्यग्राही है, वह व्यवहारनय से किसी भी वस्तु, व्यक्ति या व्यवहार के विषय को सम्यक् मान लेता है तो वह सम्यक् ही है और असम्यक् मान लेता है तो असम्यक् ही है, फिर चाहे प्रत्यक्षज्ञानियों की दृष्टि में वास्तव में वह सम्यक् हो या असम्यक्। .
- यहाँ 'उवेहाए' शब्द का संस्कृत रूप होता है - उत्प्रेक्षया। उसका अर्थ शुद्ध अध्यवसाय या मध्यस्थदृष्टि, निष्पक्ष सत्यग्राही बुद्धि, शुद्ध सरल हृदय से पर्यालोचन करना है।'
गति के 'दशा' या 'स्वर्ग-मोक्षादिगति' अर्थ के सिवाय वृत्तिकार ने और भी अर्थ सूचित किये हैं - ज्ञानदर्शन की स्थिरता, सकल-लोकश्लाघ्यता, पदवी, श्रुतज्ञानाधारता, चारित्र में निष्कम्पता। २ अहिंसा की व्यापक दृष्टि
१७०. तुमं सि णामं तं३ चेव जं हंतव्वं ति मण्णसि, तुमं सि णाम तं चेव जं अज्जावेतव्वं ति मण्णसि, तुम सि णाम तं चेव जं परितावेतव्वं ति मण्णसि, तुमं सि णाम तं चेव जं परिघेतव्वं ति मण्णसि, एवं तं चेव जं उद्दवेतव्वं ति मण्णसि ।' अंजूचेयं पडिबुद्धजीवी । तम्हा णहंतः,ण विघातए।अणुसंवेयणमप्पाणेणं, जे हंतव्वं णाभिपत्थए। १७०. तू वही है, जिसे तू हनन योग्य मानता है; तू वही है, जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है; तू वही है, जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है; तू वही है, जिसे तू दास बनाने हेतु ग्रहण करने योग्य मानता है; तू वही है, जिसे तू मारने योग्य मानता है।
ज्ञानी पुरुष ऋजु (सरलात्मा) होता है, वह (परमार्थतः हन्तव्य और हन्ता की एकता का) प्रतिबोध पाकर जीने वाला होता है । इस (आत्मैक्य के प्रतिबोध) के कारण वह स्वयं हनन नहीं करता और न दूसरों से हनन करवाता
आचा० शीला० टीका पत्रांक २०२ आचा० शीला० टीका पत्रांक २०३ 'ते चेव' के बदले सच्चेव पाठ है। 'जं हंतव्व णाभिपत्थए' की व्याख्या चूर्णि में यों है - 'जमिति जम्हा कारणा, हंतव्वं मारेयव्वमिति, ण पडिसेहे, अभिमुहं पत्थए।'- जिस कारण से उसे मारना है, उसकी ओर (तदभिमुख) इच्छा भी न करो। 'न' प्रतिषेध अर्थ में है।
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