Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
पंचम अध्ययन : षष्ठ उद्देशक: सूत्र १७६
न चिकना है, और न रूखा है। वह (मुक्तात्मा) कायवान् नहीं है । वह जन्मधर्मा नहीं (अजन्मा) है, वह संगरहित(असंग - निर्लेप ) है, वह न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक है।
वह (मुक्तात्मा) परिज्ञ है, संज्ञ (सामान्य रूप से सभी पदार्थ सम्यक् जानता ) है । वह सर्वतः चैतन्यमयज्ञानधन है । (उसका बोध कराने के लिए) कोई उपमा नहीं है। वह अरूपी (अमूर्त) सत्ता है। वह पदातीत (अपद) है, उसका बोध कराने के लिए कोई पद नहीं है।
वह न शब्द है, न रूप है, न गन्ध है, न रस है और न स्पर्श है। बस, इतना ही है। ऐसा मैं कहता हूँ ।
-
विवेचन – परमात्मा (मुक्तात्मा) का स्वरूप सूत्र १७६ में विशदरूप से बताया गया है, परन्तु वहाँ उसे जगत्
-
में
पुनः लौट आने वाला या संसार की रचना करने वाला (जगत्कर्त्ता) नहीं बताया गया है। परमात्मा जब समस्त कर्मों से रहित हो जाता है, तो संसार में लौटकर पुनः कर्मबन्धन में पड़ने के लिए क्यों आएगा ? ९
योगदर्शन में मुक्त - आत्मा (ईश्वर) का स्वरूप इस प्रकार बताया है
-
"क्लेश-कर्म विपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेषः ईश्वरः ।"
1
- क्लेश, कर्म, विपाक और आशयों (वासनाओं) से अछूता जो विशिष्ट पुरुष - (आत्मा) है, वही ईश्वर है। इसीलिए यहाँ कहा – 'अच्चेति जातिमरणस्स वट्टमग्गं' - वह जन्म-मरण के वृत्तमार्ग (चक्राकार) मार्ग का अतिक्रमण कर देता है।
१.
२.
॥ छठा उद्देशक समाप्त ॥
॥ लोकसार पंचम अध्ययन समाप्त ॥
आचा० शीला० टीका पत्रांक २०८
योगदर्शन १ । २४
विशेष - वैदिक ग्रन्थों में इसी से मिलता-जुलता ब्रह्म या परमात्मा का स्वरूप मिलता है, देखिए - "अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत् ।.
कठोपनिषद् १ । ३ । १५
१७३
अनाद्यनन्ते महतः परं ध्रुवं, निचाय्य तन्मृत्युमुखात् प्रमुच्यते ॥" " यत्तददृश्यमग्राह्यमवर्णमचक्षुश्रोत्रं तदपाणिपादम् ।
नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं तदव्यर्य यद्भूत योनिं नश्यन्ति धीराः ॥"
"यतो वाचो निवर्तन्ते, अप्राप्य मनसा सह ।
- मुण्डकोपनिषद् ६ । १।६
आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्, न बिभेति कदाचन ।" - तैत्तिरीय उपनिषद् २ । ४ । १
" ते होवा चैतदवेतदक्षरं गार्गि ! ब्राह्मणा अभिवदन्त्यस्थूलंमनण्वह्रस्वमदीर्घमिलोहितमस्नेहमच्छायमतभोऽवाप्वनाकाशमसंगमरसमगन्धमचुक्षुष्कमश्रोत्रमवागमनेऽतेजस्कमप्राणाऽमुखमगात्रमनन्तरमबाह्यं न तदश्नाति किंचन, न
तदश्नाति कश्चन ।"
- बृहदारण्यक ३ । ८ । ८ । ४ । ५ । १४