Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
करने के लिए तप आदि का निर्देश है। . 'स्त्री' एक हौवा है उनके लिए, जिनका मन स्वयं के काबू में नहीं है, जो दान्त, शान्त एवं तत्त्वदर्शी नहीं हैं, उन्हीं को स्त्रीजन से भय हो सकता है, अतः साधक पहले यही चिन्तन करे - यह स्त्री-जन मेरा - मेरी ब्रह्मचर्यसाधना का क्या बिगाड़ सकती हैं, अर्थात् कुछ भी नहीं।
_ 'एस से परमारामो' - पद में 'एस' शब्द से स्त्री-जन का ग्रहण न करके 'संयम' ही उसके लिए परम आराम (सुखरूप) है - यह अर्थ ग्रहण करना अधिक संगत लगता है। यह निष्कर्ष इसी में से फलित होता है कि मैं तो संयम से सहज आत्मसुख में हूँ, यह स्त्री-जन मुझे क्या सुख देगा? यह विषय-सुखों में डुबाकर मुझे असंयमजन्य दुःख-परम्परा में ही डालेगा।' कुन्दकुन्दाचार्य की यह उक्ति ठीक इसी बात पर घटित होती है -
"तिमिरहरा जइ दिट्ठी, जणस्स दीवेण णत्थि कादव्वं ।
तध सोक्खं सयमादा विसया किं तत्थ कुव्वंति ॥" २ - जिसकी दृष्टि ही अन्धकार का हरण करने वाली है, उसे दीपक से कोई काम नहीं होता। आत्मा स्वयं सुखरूप है, फिर उसके लिए विषय किस काम के ?
'णिब्बलासए' के दो अर्थ फलित होते हैं - (१) निर्बल'- निःसार अन्त-प्रान्तादि आहार करने वाला और (२) शरीर से निर्बल (कमजोर-कृश) होकर आहार करे, दोनों अर्थों में कार्य-कारण भाव है। पुष्टिकर शक्ति-युक्त भोजन करने से शरीर शक्तिशाली बनता है। सशक्त शरीर में कामोद्रेक की सम्भावना रहती है। शक्तिहीन भोजन करने से शरीरबल घट जाता है, कामोद्रेक की सम्भावना भी कम हो जाती है और शक्तिहीन शरीर होता है-शक्तिहीननिःसार, अल्प एवं तुच्छ भोजन करने से। वास्तव में दोनों उपायों का उद्देश्य काम-वासना को शान्त करना है। ३
"उटुं ठाणं ठाएजा' - ऊर्ध्वस्थान मुख्यतया सर्वांगासन, वृक्षासन आदि का सूचक है। भगवतीसूत्र ५ में इस मुद्रा को 'उड़े जाणू अहो सिरे' के रूप में बताया है। हठयोग प्रदीपिका में भी 'अधःशिराश्चोर्ध्वपादः' का
या है। इस आसन में कामकेन्द्र शान्त होते हैं, जिससे कामवासना भी शान्त हो जाती है। उनं जाणू अहो सिरे' का अर्थ उत्कुटिकासन है. और 'अधःशिराश्चोर्ध्वपादः' का अर्थ शीर्षासन। जो मनीषी 'उडे....' का अर्थ शीर्षासन लेते हैं, वह आगम-सम्मत्त नहीं है। अंगशास्त्रों में शीर्षासन का कहीं भी उल्लेख नहीं है।
___साधक के सुखशील होने पर भी कामवासना उभरती है, इसीलिए कहा गया है - 'आयावयाहि चय सोगमलं' आतापना लो, सुकुमारता को छोड़ो। ग्रामानुग्राम विहार करने से श्रम या सहिष्णुता का अभ्यास होता है, सुखशीलता दूर होती है, विशेषतः एक स्थान पर रहने से होने वाले सम्पर्कजनित मोह-बन्धन से भी छुटकारा हो जाता है।
'चए इत्थीसु मण' - स्त्रियों में प्रवृत्त मन का परित्याग करने का आशय मन को कहीं और जगह बांधकर फेंकना नहीं है, अपितु मन को स्त्री के प्रति काम-संकल्प करने से रोकना है, हटाना है, क्योंकि काम-वासना का मूल मन में उत्पन्न संकल्प ही है। इसीलिए साधक कहता है - ' आचा० शीला० टीका पत्रांक १९८
प्रवचनसार गाथा ६७ आचा० शीला० टीका पत्रांक १९८
४. आचा० शीला० टीका पत्रांक १९८ शतक १ उद्देशक ९
६. अध्याय १ श्लोक ८१ दशवै० २।५
प्रयोग
२.