Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पंचम अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र १६७-१६८
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मत मान, अपनी मध्यस्थ व कुशाग्र बुद्धि से स्वतन्त्र, निष्पक्ष चिन्तन द्वारा इसे देख। सत्य में दृढ श्रद्धा
१६७. वितिगिच्छसमावन्नेणं अप्पाणेणं णो लभति समाधिं । सिता वेगे अणुगच्छंति, असिता वेगे अणुगच्छंति । अणुगच्छमाणेहिं अणणुगच्छमाणे कहं ण णिव्विजे ? १६८. तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेदितं । १६७. विचिकित्सा-प्राप्त (शंकाशील) आत्मा समाधि प्राप्त नहीं कर पाता।
कुछ लघुकर्मा सित (बद्ध/गृहस्थ) आचार्य का अनुगमन करते हैं, (उनके कथन को समझ लेते हैं) कुछ असित (अप्रतिबद्ध/अनगार) भी विचिकित्सादि रहित होकर (आचार्य का) अनुगमन करते हैं । इन अनुगमन करने वालों के बीच में रहता हुआ (आचार्य का) अनुगमन न करने वाला (तत्त्व नहीं समझने वाला) कैसे उदासीन (संयम के प्रति खेदखिन्न) नहीं होगा?
१६८. वही सत्य है, जो तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित है, इसमें शंका के लिए कोई अवकाश नहीं है।
विवेचन - जिस तत्त्व का अर्थ सरल होता है, वह सुखाधिगम कहलाता है। जिसका अर्थ दुर्बोध होता है, वह दुरधिगम तथा जो नहीं जाना जा सकता, वह अनधिगम तत्त्व होता है। साधारणतः दुरधिगम अर्थ के प्रति विचिकित्सा या शंका का भाव उत्पन्न होता है । यहाँ बताया है कि विचिकित्सा से जिसका चित्त डांवाडोल या कलुषित रहता है, वह आचार्यादि द्वारा समझाए जाने पर भी सम्यक्त्व-ज्ञान-चारित्रादि के विषय में समाधान नहीं पाता। २
विचिकित्सा - ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों विषयों में हो सकती है। जैसे - "आगमोक्त ज्ञान सच्चा है या झूठा? इस ज्ञान को लेकर कहीं मैं धोखा तो नहीं खा जाऊँगा? मैं भव्य हूँ या नहीं? ये जो नौ तत्त्व या षट् द्रव्य हैं, क्या ये सत्य हैं ? अर्हन्त और सिद्ध कोई होते हैं या यों ही हमें डराने के लिए इनकी कल्पना की गई है ? इतने कठोर तप, संयम और महाव्रतरूप चारित्र का कुछ सुफल मिलेगा या यों ही व्यर्थ का कष्ट सहना है ?" ये और इस प्रकार की शंकाएँ साधक के चित्त को अस्थिर, भ्रान्त, अस्वस्थ और असमाधियुक्त बना देती हैं । मोहनीय कर्म के उदय से ऐसी विचिकित्सा होती है। इसी को लेकर गीता में कहा है - 'संशयात्मा विनश्यति'। विचिकित्सा से मन में खिन्नता पैदा होती है कि मैंने इतना जप, तप, संवर किया, संयम पाला, धर्माचरण किया, महाव्रतों का पालन किया, फिर भी मुझे अभी तक केवलज्ञान क्यों नहीं हुआ ? मेरी छद्मस्थ अवस्था नष्ट क्यों नहीं हुई ? इस प्रकार की विचिकित्सा नहीं करनी चाहिए। ३ इस खिन्नता को मिटाकर मन:समाधि प्राप्त करने का आलम्बन सूत्र है - 'तमेव सच्चं०' आदि।४
'समाधि' - समाधि का अर्थ है - मन का समाधान। विषय की व्यापक दृष्टि से इसके चार अर्थ होते हैं - १. चूर्णि में पाठान्तर - "सिया वि अणुगच्छंति, असिता वि अणुगच्छंति एगदा'। २. आचा० शीला० टीका पत्रांक २०१
उत्तराध्ययन सूत्र (२।४०-३३) में इस मन:स्थिति को प्रज्ञा-परीषह तथा अज्ञान-परीपह बताया है। आचा० शीला० टीका पत्रांक २०१