Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध 'वण्णादेसी' - वर्ण के प्रासंगिक दो अर्थ होते हैं - यश और रूप। वृत्तिकार ने दोनों अर्थ किए हैं। रूप के सन्दर्भ में प्रस्तुत पंक्ति का अर्थ यों होता है - मुनि सौन्दर्य बढ़ाने का इच्छुक होकर कोई भी (लेप, औषध-प्रयोग आदि) प्रवृत्ति न करे, अथवा मुनि रूप (चक्षुरिन्द्रिय विषय) का इच्छुक होकर (तदनुकूल) कोई भी प्रवृत्ति न करे। . 'वसुम' - वसुमान् धनवान् को कहते हैं, मुनि के पास संयम ही धन है, इसलिए 'संयम का धनी' अर्थ यहां अभीष्ट है। २
सम्यक्त्व-मुनित्व की एकता
१६१. जं सम्मं ति पासहा तं मोणं ति पासहा, जं मोणं ति पासहा तं सम्मं ति पासहा । ण इमं सक्कं सिढिलेहिं अद्दिजमाणेहिं ३ गुणासाएहिं वंकसमायारेहिं पमत्तेहिं गारमावसंतेहिं। मुणी मोणं समादाय धुणे सरीरगं५।। पंतं लूहं सेवंति वीरा सम्मत्तदंसिणो । एस ओहंतरे मुणी तिण्णे मुत्ते विरते वियाहिते त्ति बेमि।
॥ तइओ उद्देसओ समत्तो ॥ १६१. (तुम) जिस सम्यक् (वस्तु के सम्यक्त्व-सत्यत्व) को देखते हो, वह मुनित्व को देखते हो, जिस मुनित्व को देखते हो, वह सम्यक् को देखते हो।
_ (सम्यक्त्व या सम्यक्त्वादित्रय) का सम्यक्प से आचरण करना उन साधकों द्वारा शक्य नहीं है, जो शिथिल (संयम और तप में दृढ़ता से रहित) हैं, आसक्तिमूलक स्नेह से आर्द्र बने हुए हैं, विषयास्वादन में लोलुप हैं, वक्राचारी (कुटिल) हैं, प्रमादी (विषय-कषायादि प्रमाद से युक्त) हैं, जो गृहवासी (गृहस्थभाव अपनाए हुए) हैं।
मुनि मुनित्व (समस्त सावद्य प्रवृत्ति का त्याग) ग्रहण करके स्थूल और सूक्ष्म शरीर को प्रकम्पित करें - कृश कर डाले।
___समत्वदर्शी वीर (मुनि) प्रान्त (बासी या बचा-खुचा थोड़ा-सा) और रूखा (नीरस, विकृति-रहित) आहारादि का सेवन करते हैं।
इस जन्म-मृत्यु के प्रवाह (ओघ) को तैरने वाला मुनि तीर्ण, मुक्त और विरत कहलाता है।
- ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन - 'जं सम्मं ति पासहा तं मोणं ति पासहा' - यहाँ 'सम्यक्' और 'मौन' दो शब्द विचारणीय हैं। आचा० शीला० टीका पत्रांक १९२ आचा० शीला० टीका पत्रांक १९३ 'अद्दिज्जमाणेहिं का एक विशेष अर्थ चूर्णिकार ने किया है - 'अहवा अद्द अभिभवे, परीसहेहि अभिभूयमाणेण...।' अर्थात् - अद्द धातु अभिभव अर्थ में है। इसलिए यहाँ अर्थ होता है - परीषहों द्वारा पराजित हो जाने वाला। "गुणासाएहिं' के बदले 'गुणासातेहिं' पाठान्तर है। चूर्णि में इसका अर्थ यों किया गया है-'गुणसातेणं ति गुणे सादयति, गुणा वा साता जं भणितं सुहा।' गुण-पंचेन्द्रिय-विषय में जो सुख मानता है, अथवा विषय ही जिसके
लिए साता (सुख) रूप हैं। ५. 'सरीरगं' के बदले 'कग्मसरीरगं' पाठ कई प्रतियों में है।