Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पंचम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक: सूत्र १६३
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ने इसे आचार्य (गुरु) आदि तथा ईर्या दोनों से सम्बद्ध माना है जबकि टीकाकार ने इन विशेषणों को आचार्य के साथ जोड़ा है। इन विशेषणों से आचार्य की आराधना - उपासना के पांच प्रकार सूचित होते हैं -
(१) 'तद्दिट्ठीए' - आचार्य ने जो दृष्टि, विचार दिया है, शिष्य अपना आग्रह त्यागकर गुरु- प्रदत्त दृष्टि से ही चिन्तन करे ।
(२) 'तम्मुत्तीए' - गुरु की आज्ञा में ही तन्मय हो जाय ।
(३) 'तप्पुरक्कारे' - गुरु के आदेश को सदा अपने सामने आगे रखे या शिरोधार्य करें।
(४) 'तस्सण्णे' - गुरु द्वारा उपदिष्ट विचारों की स्मृति में एकरस हो जाय ।
(५) 'तण्णिवेसणे' - गुरु के चिन्तन में ही स्वयं को निविष्ट कर दे, दत्तचित्त हो जाय ।
'से अभिक्कममाणे' - आदि पदों का अर्थ वृत्तिकार ने संघांश्रित साधु के विशेषण मान कर किया है। १ जबकि किसी-किसी विवेचक ने इन पदों को 'पाणे' का द्वितीयान्त बहुवचनान्त विशेषण मानकर अर्थ किया है। दोनों ही अर्थ हो सकते हैं।
कर्म का बंध और मुक्ति
१६३. एगया गुणसमितस्स रीयतो कायसंफासमणुचिण्णा एगतिया पाणा उद्दायंति, इहलोगवेदणवेज्जाघडियं । जं आउट्टिकयं कम्मं तं परिण्णाय विवेगमेति । एवं से अप्पमादेण विवेगं किट्टति वेदवी ।
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१६३. किसी समय (यतनापूर्वक) प्रवृत्ति करते हुए गुणसमित (गुणयुक्त) अप्रमादी (सातवें से तेरहवें गुणस्थानवर्ती) मुनि के शरीर का संस्पर्श पाकर (सम्पातिम आदि) प्राणी परिताप पाते हैं। कुछ प्राणी ग्लानि पाते हैं। अथवा कुछ प्राणी मर जाते हैं, (अथवा विधिपूर्वक प्रवृत्ति करते हुए प्रमत्त - षष्ठगुणस्थानवर्ती मुनि के कायस्पर्श से न चाहते हुए भी कोई प्राणी परितप्त हो जाए या मर जाए) तो उसके इस जन्म में वेदन करने ( भोगने ) योग्य कर्म का बन्ध हो जाता है ।
(किन्तु उस षष्ठगुणस्थानवर्ती प्रमत्त मुनि के द्वारा ) आकुट्टि से (आगमोक्त विविधरहित-अविधिपूर्वक-) प्रवृत्ति करते हुए जो कर्मबन्ध होता है, उसका (क्षय) ज्ञपरिज्ञा से जानकर ( - परिज्ञात कर) दस प्रकार के प्रायश्चित में से किसी प्रायश्चित से करें ।
इस प्रकार उसका (प्रमादवश किए हुए साम्परायिक कर्मबन्ध का) विलय (क्षय) अप्रमाद ( से यथोचित प्रायश्चित्त से) होता है, ऐसा आगमवेत्ता शास्त्रकार कहते हैं ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में ईर्यासमितिपूर्वक गमन करने वाले साधक के निमित्त से होने वाले आकस्मिक जीव-वध के विषय में चिन्तन किया गया है।
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आचा० शीला० टीका पत्रांक १९६
'वेज्जावडियं' के बदले चूर्णि में 'वेयावडियं' पाठ मानकर अर्थ किया गया है - "तवो वा छेदो वा करेति वेयावडियं, कम्म खवणीयं विदारणीयं वेयावडियं ।" अर्थात् - तप, छेद या वैयावृत्त्य (सेवा) (जिसके वेदन- भोगने के लिए) करता है, वह वैयावृत्त्यिक है, जो कर्म - विदारणीय क्षय करने योग्य है, वह भी वेदापतित है ।
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'आउट्टिकतं परिण्णातविवेगमेति' यह पाठान्तर चूर्णि में है । अर्थ होता है जो आकुट्टिकृत है, उसे परिज्ञात करके विवेक नामक प्रायश्चित्त प्राप्त करता है।