Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
नहीं है। चूर्णिकार 'अविजाए' के स्थान पर 'विजाए' पाठ मानकर इसका अर्थ करते हैं - जैसे मंत्रों से विष का नाश हो जाता है (उतर जाता है), वैसे ही विद्या (देवी के मंत्र) से या (कोरे ज्ञान से) कोई-कोई परिमोक्ष (सर्वथा मुक्ति) चाहते हैं, जैसे सांख्य । विद्या-तत्त्वज्ञान से ही मोक्ष होता है, यह सांख्यों का मत है। जैसा कि सांख्य कहते
पंचविंशतितत्त्वज्ञो यत्रकुत्राश्रमे रतः ।
जटी मुंडी शिखी वाऽपि; मुच्यते नात्र संशयः॥ - २५ तत्त्वों का जानकार किसी भी आश्रम में रत हो, अवश्य मुक्त हो जाता है, चाहे वह जटाधारी हो, मुण्डित हो या शिखाधारी हो।
मोक्ष से विपरीत संसार है। अविद्या संसार का कारण है। अतः जो दार्शनिक अविद्या को विद्या मानकर मोक्ष का कारण बताते हैं, वे संसार के भंवरजाल में बार-बार पर्यटन करते रहते हैं, उनके संसार का अन्त नहीं होता।
॥ प्रथम उद्देशक समाप्त ॥
बिइओ उद्देसओ
द्वितीय उद्देशक अप्रमाद का पथ
१५२. आवंती केआवंती लोगंसि अणारंभजीवी, एतेसु चेव अणारंभजीवी ।। एत्थोवरते तं झोसमाणे अयं संधी ति अदक्खु, जे इमस्स विग्गहस्स अयं खणे त्ति अन्नेसी । एस मग्गे आरिएहिं पवेदिते । उहिते णो पमादए जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सातं पुढो छंदा इह माणवा । पुढो दुक्खं पेवदितं । से अविहिंसमाणे अणवयमाणे ५ पुट्ठो फासे विप्पणोल्लए। एस समियापरियाए' वियाहिते।
१.
'एतेसु चेव अणारंभजीवी' के बदले चूर्णि में पाठ है - 'एतेसु चेव छक्काएसु' - इन्हीं षड् जीवनिकायों में..."। शीलाकांचार्य अर्थ करते हैं-'तेष्वेव गहिषु' अर्थात् - उन्हीं गृहस्थों में। 'अन्नेसी' के बदले 'मण्णेसी'मनेसी' पाठ है, जिसका अर्थ है - मानते हैं। 'पुढो छंदा इह माणवा' के बदले 'पुढो छंदाणं माणवाणं' पाठ है - अलग-अलग स्वच्छन्द मानवों के"""। 'से अविहिंसमाणे' इत्यादि पाठ का अर्थ चूर्णि में मिलता है - "अणारंभजीविणा तवो अधिठेयव्वो, जत्थ उवदेसो पुढो (पुट्ठो) फासे। अहवा जति तं विरतं परीसहा फुसिज्जा तत्थ सुत्तं - पुट्ठो फासे विप्पणोल्लए। पुट्ठो पत्तो।" इसका अर्थ है - अनारम्भजीवी को तपश्चर्या का अनुष्ठान करना चाहिए। जिस साधक के हृदय में भगवदुपदेश स्पर्श कर गया है वह परीषहों का स्पर्श होने पर विविध प्रकार से समभाव से सहन करे। यदि उस विरत साधु को परीषहों का स्पर्श हो तो यह सूत्र वहाँ उपयुक्त है - पुढो फासे विप्प०।