Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पंचम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक: सूत्र १५२-१५३
साधक का लक्षण है।
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'अयं खणेत्ति अन्नेसी' - इस पद का अर्थ है कि शरीर के वर्तमान क्षण पर चिन्तन करे शरीर के भीतर प्रतिक्षण जो परिवर्तन हो रहे हैं, रोग-पीड़ा आदि नये-नये रूप में उभर रहे हैं, उनको देखे, एक क्षण का गम्भीर अन्वेषण भी शरीर की नश्वरता को स्पष्ट कर देता है। अतः गम्भीरतापूर्वक शरीर के वर्तमान क्षण का अन्वेषण करे ।
पंचमहाव्रती साधु को गृहीत प्रतिज्ञा के निर्वाह के समय कई प्रकार के परीषह (कष्ट), उपसर्ग, दुःख, आतंक आदि आ जाते हैं, उस समय उसे क्या करना चाहिए? इस सम्बन्ध में शास्त्रकार कहते हैं - 'ते फासे पुट्ठोऽधियासते से पुव्वं पेतं पच्छा पेतं ' इसका आशय यह है कि उस समय साधक उन दुःखस्पर्शो को अनाकुल और धैर्यवान होकर सहन करे । संसार की असारता की भावना, दुःख सहने से कर्म - निर्जरा की साधना आदि का विचार करके उन दुःखों का वेदन न करे, मन में दुःखों के समय समभाव रखे। शरीर को अनित्य, अशाश्वत, क्षणभंगुर और नाशवान् तथा परिवर्तनशील मानकर इससे आसक्ति हटाए, देहाध्यास न करे। साथ ही यह भी विचार करे कि मैंने पूर्व में जो असातावेदनीय कर्म बांधे हैं, उनके विपाक (फल) स्वरूप जो दुःख आएँगे, वे मुझे ही सहने पड़ेंगे, मेरे स्थान पर कोई अन्य सहन करने नहीं आएगा और किए हुए कर्मों के फल भोगे बिना छुटकारा कदापि नहीं हो सकता । अतः जैसे पहले भी मैंने असातावेदनीय कर्म विपाक - जनित दुःख सहे थे, वैसे बाद में भी मुझे ये दुःख सहने पड़ेंगे। संसार में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है, जिस पर असातावेदनीय कर्म के फलस्वरूप दुःख, रोग आदि आतंक न आये हों, यहाँ तक कि वीतराग तीर्थंकर जैसे महापुरुषों के भी पूर्वकृत असातावेदनीय कर्मवश दुःख, आतंक आदि आ जाते हैं। उन्हें भी कर्मफल अवश्य भोगने पड़ते हैं। अतः मुझे भी इनके आने पर घबराना नहीं चाहिएं, समभावपूर्वक इन्हें सहते हुए कर्मफल भोगने चाहिए।
'णत्थि मग्गे विरयस्स' - हिंसादि आश्रवद्वारों से निवृत्त मुनि के लिए कोई मार्ग नहीं है, इस कथन के पीछे तीन अर्थ फलित होते हैं -
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(१) इस जन्म में विविध परमार्थ भावनाओं के अनुप्रेक्षण के कारण शरीरादि की आसक्ति से मुक्त साधक के लिए नरक - तिर्यंचादिगमन (गति) का मार्ग नहीं है - बन्द हो जाता है ।
(२) उसी जन्म में समस्त कर्मक्षय हो जाने के कारण उसके लिए चतुर्गतिरूप कोई मार्ग नहीं है ।
(३) जन्म, जरा, व्याधि और मृत्यु, चार दुःख के मुख्य मार्ग हैं। विरत और विप्रमुक्त के लिए ये मार्ग बन्द हो जाते हैं।
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(क)
आचा० शीला० टीका पत्रांक १८६
(ख) कर्मफल स्वेच्छा से भोगने और अनिच्छा से भोगने में बहुत अन्तर पड़ जाता है। एक आचार्य ने कहा है
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स्वकृतपरिणतानां दुर्नयानां विपाकः, पुनरपि सहनीयोऽत्र ते निर्गुणस्य । स्वयमनुभवताऽसौ दुःखमोक्षाय सद्यो, भवशतगतिहेतुर्जायतेऽनिच्छतस्ते ॥
- खेदरहित होकर स्वकृत कर्मों के बन्ध का विपाक अभी नहीं सहन करोगे तो फिर (कभी न कभी) सहन करना (भोगना) ही पड़ेगा। यदि वह कर्मफल स्वयं स्वेच्छा से भोग लोगे तो शीघ्र दुःख से छुटकारा हो जायगा। यदि अनिच्छा से भोगोगे तो वह सौभवों (जन्मों) में गमन का कारण हो जाएगा।
आचा० शीला० टीका पत्रांक १८७