Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र / प्रथम श्रुतस्कन्ध
'विगिंच मंस-सोणितं ' - कहकर ब्रह्मचर्य साधक को मांस-शोणित घटाने का निर्देश दिया गया है। क्योंकि मांस-शोणित की वृद्धि से काम-वासना प्रबल होती है, उससे ब्रह्मचर्य की साधना में विघ्नं आने की सम्भावना बढ़ जाती है। उत्तराध्ययसूत्र में इसी आशय को स्पष्टता के साथ कहा गया है।
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'जहा दवग्गि पएरिंधणे वणे, समारुओ नोवसमं उवेइ । एविन्दियग्गी वि पगामभोइणो, न बंभयारिस्स हियाय कस्सई । '
-३२।११
• जैसे प्रबल पवन के साथ प्रचुर ईन्धन वाले वन में लगा दावानल शांत नहीं होता, इसी प्रकार प्रकामभोजी की इन्द्रियाग्नि (वासना) शांत नहीं होती । ब्रह्मचारी के लिए प्रकाम भोजन कभी भी हितकर नहीं है।
प्रकाम (रसयुक्त यथेच्छ भोजन) से मांस- शोणित बढ़ता है। शरीर में जब मांस और रक्त का उपचय नहीं होगा तो इसके बिना क्रमश: मेद, अस्थि, मज्जा, और वीर्य का भी उपचय नहीं होगा। इस अवस्था में सहज ही आपीड़न आदि की साधना हो जाती है।
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'वसित्ता बंभचेरंसि' - ब्रह्मचर्य में निवास करने का तात्पर्य भी गहन है । ब्रह्मचर्य के चार अर्थ फलित होते हैं - (१) ब्रह्म (आत्मा या परमात्मा) में विचरण करना, (२) मैथुनविरति या सर्वेन्द्रिय संयम और (३) गुरुकुलवास तथा (४) सदाचार ।
यहाँ ब्रह्मचर्य के ये सभी अर्थ घटित हो सकते हैं किन्तु दो अर्थ अधिक संगत प्रतीत होते हैं - (१) सदाचार तथा (२) गुरुकुलवास। 'वसित्ता' शब्द 'गुरुकुल निवास' अर्थ को सूचित करता है। किन्तु यहाँ सम्यक् चारित्र का प्रसंग है। ब्रह्मचर्य चारित्र का एक मुख्य अंग है। इस दृष्टि से 'ब्रह्मचर्य' में रहकर अर्थ भी घटित हो सकता है । १ 'आयाणसोतगढिते'- - इसका शब्दश: अर्थ होता है - 'आदान के स्रोतों में गृद्ध' । 'आदान' का अर्थ कर्म है, जो कि संसार का बीजभूत होता है। उसके स्रोत ( आने के द्वार) - इन्द्रियविषय, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । इन आदान स्रोतों में रात-दिन रचे-पचे रहने वाले अज्ञानी का अन्तःकरण राग, द्वेष और महामोहरूप अन्धकार से आवृत्त रहता है, उसे अर्हद्देव के प्रवचनों का लाभ नहीं मिल पाता, न उसे धर्म श्रवण में रुचि जागती है, न उसे कोई अच्छा कार्य या धर्माचरण करने की सूझती है। इसीलिए कहा है - 'आणाए लंभो णत्थि ' आज्ञा का लाभ नहीं मिलता।
आज्ञा के यहाँ दो अर्थ सूचित किये गये हैं- श्रुतज्ञान और तीर्थंकर - वचन या उपदेश । ज्ञान या उपदेश का सार आस्रवों से विरति और संयम या आचार में प्रवृत्ति है। उसी से कर्मनिर्जरा या कर्ममुक्ति हो सकती है। आज्ञा का अर्थ वृत्तिकार ने बोध या सम्यक्त्व भी किया है । ३
'ज़स्स णत्थि पुरे पच्छा...' इस पंक्ति में एक खास विषय का संकेत है। ' णत्थि ' शब्द इसमें त्रैकालिक विषय से सम्बद्ध अव्यय है। इस वाक्य का एक अर्थ वृत्तिकार ने यों किया है - जिसकी भोगेच्छा के पूर्व संस्कार नष्ट हो चुके हैं, तब भला बीच में, वर्तमान काल में वह भोगेच्छा कहाँ से आ टपकेगी ? 'मूलं नास्ति कुतः शाखा'
भागेच्छा का मूल ही नहीं है, तब वह फलेगी कैसे ? साधना के द्वारा भोगेच्छा की आत्यन्तिक एवं त्रैकालिक निवृत्ति हो जाती है, तब न अतीत का संस्कार रहता है, न भविष्य की वांच्छा/कल्पना, ऐसी स्थिति में तो उसका
आचा० शीला० टीका पत्रांक १७४
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आचा० शीला० टीका पत्रांक १७५. आचा० शीला० टीका पत्रांक १७५
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