Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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चतुर्थ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक: सूत्र १३४ - १३९
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(१) हिंसा, (२) असत्य, (३) चोरी, (४) मैथुन और (५) परिग्रह - ये पांच आस्रवद्वार माने जाते हैं । १ आस्रव के भेद कुछ आचार्यों ने मुख्यतया पांच माने हैं - (१) मिथ्यात्व, (२) अविरति, (३) प्रमाद, (४) कषाय और (५) योग। कुछ आचार्यों ने (१) इन्द्रिय, (२) कषाय, (३) अव्रत, (४) क्रिया और (५) योग - ये पांच मुख्य भेद मानकर उत्तर भेद ४२ मांने हैं - ५ इन्द्रिय, ४ कषाय, ५ अव्रत, २५ क्रिया और ३ योग । किन्तु इन सबका फलितार्थ एक ही है ।
आस्रव का सर्व सामान्य लक्षण है आठ प्रकार के शुभाशुभ कर्म जिन मिथ्यात्वादि स्रोतों से आते हैं आत्म-प्रदेशों के साथ एकमेक हो जाते हैं, उन स्रोतों को आस्रव कहते हैं । ४
आस्रव और बन्ध के कारणों में कोई अन्तर नहीं है, किन्तु प्रक्रिया में थोड़ा-सा अन्तर है । कर्मस्कन्धों का आगमन आस्रव कहलाता है और कर्मस्कन्धों के आगमन के बाद उन कर्म-स्कन्धों का जीव - (आत्म) प्रदेशों में स्थित हो जाना बन्ध है । आस्रव और बन्ध में यही अन्तर है । इस दृष्टि से आस्रव को बन्ध का कारण कहा जा सकता
है ।
परिस्रव - जिन अनुष्ठान विशेषों से कर्म चारों ओर से गल या बह जाता है, उसे परिस्रव कहते हैं।
नव तत्त्व की शैली में इसे 'निर्जरा' कहते हैं, क्योंकि निर्जरा का यही लक्षण है। इसीलिए यहाँ परिस्रव को 'निर्जरा 'स्थान' बताया गया । आस्रवों निवृत्त होने का उपाय 'मूलाचार' में यों बताया गया है - मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगों से जो कर्म आते हैं वे सम्यग्दर्शन, विरति, क्षमादिभाव और योगनिरोध से नहीं आने पाते, रुक जाते हैं। 'समयसार में निश्चय दृष्टि से आस्रव-निरोध का उपाय बताते हुए कहा है। ' 'ज्ञानी विचारता है कि मैं एक हूँ, निश्चयत: सबसे पृथक् हूँ, शुद्ध हूँ, ममत्वरहित हूँ, ज्ञान और दर्शन से परिपूर्ण हूँ। इस प्रकार अपने आत्मभाव (स्वभाव) में स्थित उसी चैतन्य अनुभव में एकाग्रचित्त तल्लीन हुआ मैं इस सब क्रोधादि आस्रवों का क्षय कर देता हूँ। ये आस्रव जीव के साथ निबद्ध हैं, अनित्य हैं, अशरण हैं, दुःखरूप हैं, इनका फल दुःख ही है, यह जानकर ज्ञानी पुरुष उनसे निवृत्त होता है । जैसे-जैसे जीव आस्रवों से निवृत्त होता जाता है, वैसे-वैसे वह विज्ञानघन स्वभाव होता है, यानी आत्म ज्ञान में स्थिर होता जाता है।"
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इसी दृष्टि का संक्षेप कथन यहाँ पर हुआ है कि जो आस्रव के - कर्मबन्धन के स्थान हैं, वे ही ज्ञानी पुरुष के लिए परिस्रव • कर्मनिर्जरा के स्थान - (कारण) हो जाते हैं। इसका आशय यह है कि ' विषय-सुखमग्न मनुष्यों के लिए जो स्त्री, वस्त्र, अलंकार, शैया आदि वैषयिक सुख के कारणभूत पदार्थ कर्मबन्ध के हेतु होने से आस्रव हैं,
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इसीलिए प्रस्तुत सूत्र में आस्रवों को कर्मबन्ध का स्थान - कारण बताया गया है।
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(क) प्रश्नव्याकरण, प्रथम खण्ड आस्रवद्वार, (ख) आचा० शीला टीका पत्रांक १६४
(क) समयसार मूल १६४, (ख) गोम्मटसार कर्मकाण्ड मू० ८६ (ग) बृ० द्रव्यसंग्रह मू० ३०
(क) तत्त्वार्थसार ४।७, (ख) नवतत्त्वगाथा
आचा० शीला० टीका पत्रांक १६४
द्रव्यसंग्रह टीका ३३ । ९४
मूलाचार गा० २४१
८. समयसार गा० ७३, ७४
९.
आचा० शीला० टीका पत्रांक १६४
६. आचा० शीला० टीका पत्रांक १६४