Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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परेण परं जंति, गावकंखंति जीवितं ।
एवं विगिंचमाणे पुढो विगिंचड़, पुढो विगिंचमाणे एगं विगिंचइ । सड्डी आणाए मेधावी ।
लोगं च आणाए अभिसमेच्या अकुतोभयं ।
अत्थि सत्थं परेण परं, णत्थि असत्थं परेण परं ।
आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
१३०. जे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायदंसी, जे मायदंसी से लोभदंसी, जे लोभदंसी से पेज्जदंसी, जे पेज्जदंसी से दोसदंसी, जे दोसदंसी से मोहदंसी, जे मोहदंसी से गब्भदंसी, जे गब्भदंसी से जम्मदंसी, जे जम्मदंसी से मारदंसी, जे मारदंसी से णिरयदंसी, जे णिरयदंसी से तिरियदंसी, जे तिरियदंसी से दुक्खसी ।
हावी अभिणिवट्टेज्जा कोधं च माणं च मायं च लोभं च पेज्जं च दोसं च मोहं च गब्धं च जम्मं च मारं च रगं च तिरियं च दुक्खं च ।
एयं पासगस्स दंसणं उवरयसत्थस्स पलियंतकरस्स- आयाणं निसिद्धा सगडब्भि ।
१३१. किमत्थि उवधी पासगस्स, ण विज्जति ? णत्थि त्ति बेमि ।
॥ चउत्थो उद्देसओ समत्तो ॥
१२८. वह (सत्यार्थी साधक) क्रोध, मान, माया और लोभ का (शीघ्र ही) वमन (त्याग) कर देता है । यह दर्शन (उपदेश) हिंसा से उपरत तथा समस्त कर्मों का अन्त करने वाले सर्वज्ञ - सर्वदर्शी (तीर्थंकर) का है। जो कर्मों के आदान (कषायों, आस्रवों) का निरोध करता है, वही स्व-कृत (कर्मों) का भेत्ता (नाश करने वाला) है। १२९. . जो एक को जानता है, वह सब को जानता है । जो सबको जानता है, वह एक को जानता है ।
प्रमत्त को सब ओर से भय होता है, अप्रमत्त को कहीं ये
भय नहीं होता।
जो एक को झुकाता है, वह बहुतों को झुकाता है, जो बहुतों को झुकाता है, वह एक को झुकाता है। साधक लोक- (प्राणि-समूह ) के दुःख को जानकर (उसके हेतु कषाय का त्याग करे )
वीर साधक लोक के (संसार के) संयोग (ममत्व - सम्बन्ध) का परित्याग कर महायान (मोक्षपथ) को प्राप्त करते हैं। वे आगे से आगे बढ़ते जाते हैं, उन्हें फिर (असयंमी) जीवन की आकांक्षा नहीं रहती ।
एक (अनन्तानुबंधी कषाय) को (जीतकर ) पृथक् करने वाला, अन्य (कर्मों) को भी (जीतकर ) पृथक् कर देता है, अन्य को (जीतकर ) पृथक् करने वाला, एक को भी पृथक् कर देता है ।
( वीतराग की ) आज्ञा में श्रद्धा रखने वाला मेधावी होता है।
साधक आज्ञा से (जिनवाणी के अनुसार) लोक ( षट्जीवनिकायरूप या कषायरूप लोक ) को जानकर (विषयों) का त्याग कर देता है, वह अकुतोभय (पूर्ण- अभय ) हो जाता है।
शस्त्र (असंयम) एक से एक बढ़कर तीक्ष्ण से तीक्ष्णतर होता है किन्तु अशस्त्र (संयम) एक से एक बढ़कर
नहीं होता ।