Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र ८५-८७ (प्रमाद न करे) यह शरीर भंगुरधर्मा-नाशवान है, यह देखने वाला (प्रमाद न करे)।
__ ये भोग (तेरी अतृप्ति की प्यास बुझाने में) समर्थ नहीं हैं । यह देख । तुझे इन भोगों से क्या प्रयोजन है? हे मुनि! यह देख, ये भोग महान् भयरूप हैं। ' भोगों के लिए किसी प्राणी की हिंसा न कर। भिक्षाचरी में समभाव
८६. एस वीरे पसंसिते जे ण णिव्विजति आदाणाए । ण मे देति ण कुप्पेज्जा, थोवं लक्षु णं खिंसए । पडिसेहितो परिणमेज्जा । एतं मोणं समणुवासेजासि त्ति बेमि ।
॥चउत्थो उद्देसओ समत्तो ॥ ८६. वह वीर प्रशंसनीय होता है, जो संयम से उद्विग्न नहीं होता अर्थात् जो संयम में सतत लीन रहता है।
'यह मुझे भिक्षा नहीं देता' ऐसा सोचकर कुपित नहीं होना चाहिए। थोड़ी भिक्षा मिलने पर दाता की निंदा नहीं करनी चाहिए। गृहस्वामी दाता. द्वारा प्रतिबंध करने पर - निषेध करने पर शान्त भाव से वापस लौट जाये।
मुनि इस मौन (मुनिधर्म) का भलीभांति पालन करे।
विवेचन - यहाँ भोग-निवृत्ति के प्रसंग में भिक्षा-विधि का वर्णन आया है। टीकाकार आचार्य की दृष्टि में इसकी संगति इस प्रकार है - मुनि संसार त्याग कर भिक्षावृत्ति से जीवनयापन करता है। उसकी भिक्षा त्याग का साधन है, किन्तु यदि वही भिक्षा आसक्ति, उद्वेग तथा क्रोध आदि आवेशों के साथ ग्रहण की जाये तो, भोग बन जाती है। श्रमण की भिक्षावृत्ति भोग' न बने इसलिए यहाँ भिक्षाचर्या में मन को शांत, प्रसन्न और संतुलित रखने का उपदेश किया गया है।
॥चतुर्थ उद्देशक समाप्त ॥
पञ्चमो उद्देसओ पंचम उद्देशक
शुद्ध आहार की एषणा
८७. जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं लोगस्स कम्मसमारंभा कजंति । तं जहा - अप्पणो से पुत्ताणं धूताणं सुण्हाणं णातीणं धातीणं राईणं दासाणं दासीणं कम्मकराणं कम्मकरीणं आदेसाए पुढो पहेणाए १. कामदशावस्थात्मकं महद् भयं-टीका पत्रांक- ११६।१ २. यहाँ पाठान्तर है-'पडिलाभिते परिणमे' - चूर्णि। पडिलाभिओ परिणमेजा- शीलांक टीका।