Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र ९७
९७. पडिलेहाए णो णिकरणाए । एस परिण्णा पवुच्चति कम्मोवसंती । जे ममाइयमतिं जहाति से जहाति ममाइतं ।। से हु दिट्ठपहे ' मुणी जस्स णत्थि ममाइतं । तं परिण्णाय मेहावी विदित्ता लोगं, वंता लोगसण्णं, से मतिमं परक्कमेज्जासि त्ति बेमि।
९७. यह जानकर (परिग्रह के कारण प्राणी संसार में दुःखी होता है) उसका (परिग्रह का) संकल्प त्याग देवे। यही परिज्ञा/विवेक कहा जाता है। इसी से (परिग्रह-त्याग से) कर्मों की शान्ति - क्षय होता है।
जो ममत्व-बुद्धि का त्याग करता है, वह ममत्व (परिग्रह) का त्याग करता है। वही दृष्ट-पथ (मोक्ष-मार्ग को देखने वाला) मुनि है, जिसने ममत्व का त्याग कर दिया है।
यह (उक्त दृष्टिबिन्दु को) जानकर मेधावी लोकस्वरूप को जाने । लोक-संज्ञा का त्याग करे, तथा संयम में पुरुषार्थ करे। वास्तव में उसे ही गतिमान् (बुद्धिमान्) ज्ञानी पुरुष कहा गया है - ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में ममत्वबुद्धि का त्याग तथा लोक-संज्ञा से मुक्त होने का निर्देश किया है। ममत्वबुद्धि - मूर्छा एवं आसक्ति, बन्धन का मुख्य कारण है । पदार्थ के.सम्बन्ध मात्र से न तो चित्त कलुषित होता है, और न कर्म बन्धन होता है। पदार्थ के साथ-साथ जब ममत्वबुद्धि जुड़ जाती है तभी वह पदार्थ परिग्रह कोटि में आता है
और तभी उससे कर्मबंध होता है। इसलिए सूत्र में स्पष्ट कहा है - जो ममत्वबुद्धि का त्याग कर देता है, वह सम्पूर्ण ममत्व अर्थात् परिग्रह का त्याग कर देता है। और वही परिग्रह-त्यागी पुरुष वास्तव में सत्य पथ का द्रष्टा है, पथ का द्रष्टा - सिर्फ पथ को जानने वाला नहीं, किन्तु उस पथ पर चलने वाला होता है - यह तथ्य यहाँ संकेतित है।
लोक को जानने का आशय है - संसार में परिग्रह तथा हिंसा के कारण ही समस्त दुःख व पीड़ाएँ होती हैं. तथा संसार परिभ्रमण बढ़ता है, यह जाने।
लोगसण्णं - लोक-संज्ञा के तीन अर्थ ग्रहण किये गये हैं, (१) आहार, भय आदि दस प्रकार की लोक संज्ञा । २ (२) यश:कामना, अहंकार, प्रदर्शन की भावना, मोह, विषयाभिलाषा, विचार-मूढता, गतानुतिक वृत्ति, आदि। (३) मनगढन्त लौकिक रीतियाँ - जैसे श्वान यक्ष रूप है, विप्र देवरूप है, अपुत्र की गति नहीं होती आदि।
इन तीनों प्रकार की संज्ञाओं/वृत्तियों का त्याग करने का उद्देश्य यहाँ अपेक्षित है। लोक संज्ञाष्टक' में इस विषय पर विस्तृत विवेचन करते हुए आचार्यों ने बताया है -
लोकसंज्ञोज्झितः साधुः परब्रह्म समाधिमान् ।
सुखमास्ते गतद्रोह-ममता-मत्सरज्वरः ॥८॥ - शुद्ध आत्म-स्वरूप में रमणरूप समाधि में स्थित, द्रोह, ममता (द्वेष एवं राग) मात्सर्य रूप से ज्वर से रहित,
१.
दिट्ठभए - पाठान्तर है। (क) (१) दस संज्ञाएँ इस प्रकार है- (१) आहारसंज्ञा, (२) भयसंज्ञा (३) मैथुनसंज्ञा (४) परिग्रहसंज्ञा (५) क्रोधसंज्ञा
(६) मानसंज्ञा (७) मायासंज्ञा (८) लोभसंज्ञा (९) ओघसंज्ञा (१०) लोकसंज्ञा । - प्रज्ञापना सूत्र, पद १० (ख) आचा० शीला० टीका, पत्रांक १२९ देखें अभि० राजेन्द्र, भाग ६, पृ०७४१ अभि० राजेन्द्र भाग ६, पृ०७४१ 'लोग सण्णा' शब्द।
३. ४.