Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक: सूत्र १०७
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होता है। जो पुरुष अपनी प्रज्ञा (विवेक) से लोक को जानता है, वह मुनि कहलाता है। वह धर्मवेत्ता और ऋजु (सरल) होता है।
वह निर्ग्रन्थ शीत और उष्ण (सुख और दुःख) का त्यागी (इनकी लालसा से) मुक्त होता है तथा वह अरति और रति को सहन करता है (उन्हें त्यागने में पीड़ा अनुभव नहीं करता) तथा स्पर्शजन्य सुख-दुःख का वे (आसक्तिपूर्वक अनुभव) नहीं करता ।
(सावधान) और वैर से उपरत वीर ! तू इस प्रकार (ज्ञान, आसक्ति, सहिष्णुता, जागरूकता और समता - प्रयोग द्वारा) दुःखों - दुःखों के कारण कर्मों से मुक्ति पा जाएगा।
(वह आत्मवान् मुनि) संग (आसक्ति) को आवर्त - स्रोत (जन्म-मरणादि चक्र के स्रोत – उद्गम) के रूप बहुत निकट से जान लेता है।
विवेचन - इस सूत्र में पंचेन्द्रिय-विषयों के यथावस्थित स्वरूप के ज्ञाता तथा उनके त्यागी को ही मुनि, निर्ग्रन्थ एवं वीर बताया गया है।
अभिसमन्वागत का अर्थ है - जो विषयों के इष्ट-अनिष्ट, मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूप को स्वरूप को, उनके उपभोग के दुष्परिणामों को आगे-पीछे से, निकट और दूर से ज्ञ-परिज्ञा से भलीभाँति जानता है तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उनका त्याग करता है ।
है।
१.
२.
आत्मवान् का अर्थ है - ज्ञानादिमान् अथवा शब्दादि विषयों का परित्याग करके आत्मा की रक्षा करने वाला । ज्ञानवान् का अर्थ है - जो जीवादि पदार्थों का यथावस्थित ज्ञान कर लेता है।
ब्रह्मवान् का अर्थ है - जो अठारह प्रकार के ब्रह्मचर्य से सम्पन्न है। २
इस सूत्र का आशय यह है कि जो पुरुषं शब्दादि विषयों को भलीभाँति जान लेता है, उनमें राग-द्वेष नहीं करता, वह आत्मवित्, ज्ञानवित्, वेदवित्, धर्मवित् एवं ब्रह्मवित् होता है ।
वस्तुतः शब्दादि विषयों की आसक्ति, आत्मा की अनुपलब्धि अर्थात् आत्म-स्वरूप के बोध के अभाव में
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वेदवान् का अर्थ है - जीवादि का स्वरूप जिनसे जाना जा सके, उन वेदों- आचारांग आदि आगमों का ज्ञाता । धर्मवान् वह है - जो श्रुत - चारित्ररूप धर्म का अथवा साधना की दृष्टि से आत्मा के स्वभाव (धर्म) का ज्ञाता
'धर्मवित्' का व्युत्पत्त्यर्थ देखिये- 'धर्मं चेतनाचेतनद्रव्यस्वभावं श्रुतचारित्ररूपं वा वेत्तीति धर्मवित्' - "जो धर्म को - चेतन-अचेतन द्रव्य के स्वभाव को या श्रुत चारित्ररूप धर्म को जानता है, वह धर्मवित् है ।"
-आचा० टीका पत्रांक १३९
(क) समवायांग १८ ।
(ख) दिवा कामरइसुहा तिविहं तिविहेण नवविहा विरई ।
ओरालिया उ वि तहा तं बंभं अट्ठदसभेयं ॥
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अर्थात् - देव-सम्बन्धी भोगों का मन, वचन और काया से सेवन न करना, दूसरों से न कराना तथ करते हुए को भला न जानना - इस प्रकार नौ भेद हो जाते हैं। औदारिक अर्थात् मनुष्य, तिर्यंच सम्बन्धी भोगों के लिए भी इसी प्रकार नौ भेद हैं। कुल मिलाकर अठारह भेद हो जाते हैं।