Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र / प्रथम श्रुतस्कन्ध
निद्राधीन होते हुए भी आत्म-स्वरूप में जागृत रहते हैं, वे धर्म की दृष्टि से जागृत हैं। अथवा भाव से जागृत साधक, निद्रा - प्रमादवश सुषुप्त होते हुए भी भावसुप्त नहीं कहलाता। यहाँ भावसुप्त एवं भावजागृत दोनों अवस्थाएँ धर्म की अपेक्षा से कही गयी हैं ।
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अज्ञान दुःख का कारण है, इसलिए यहाँ 'अज्ञान' के स्थान पर 'दुःख' शब्द का प्रयोग किया गया है। चूर्णिकार ने दुःख का अर्थ 'कर्म' किया है। उन्होंने बताया है कि कर्म दुःख का कारण है। अज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म आदि से सम्बन्धित भी है, इसलिए प्रसंगवश दुःख का अर्थ यहाँ अज्ञान भी किया जा सकता है।
'समय' शब्द र यहाँ प्रसंगवश दो अर्थों को अभिव्यक्त करता है. आधार और समता। लोक- प्रचलित आचार या रीति-रिवाज साधक को जानना आवश्यक है। संसार के प्राणी भोगाभिलाषी होने के कारण प्राणिविघातक एवं कषायहेतु लोकाचार के कारण अनेक कर्मों का संचय करके नरकादि यातना - स्थानों में उत्पन्न होते हैं। कदाचित् कर्मफल भोगने के बाद वे धर्मप्राप्ति के कारण मनुष्य जन्म, आर्य-क्षेत्र आदि में पैदा होते हैं, लेकिन फिर महामोह, अज्ञानादि अन्धकार के वश अशुभकर्म का उपार्जन करके अधोगतियों में जाते हैं। संसार के जन्म-मरण के चक्र से नहीं निकल पाते। यह है- लोकाचार। इस लोकाचार (समय) को जानकर हिंसा से उपरत होना चाहिए । इसी प्रकार लोक (समस्त जीव समूह) में शत्रु - मित्रादि के प्रति अथवा समस्त आत्माओं के प्रति समता (समभाव - आत्मौपम्य दृष्टि) जान कर हिंसा आदि शस्त्रों से विरत होना चाहिए ।
अरति-रति-त्याग
१०७. जस्सिमे सद्दा य रूवा य गंधा य रसा य फासा य अभिसमण्णागता भवंति से आतवं णाणव वेयवं धम्मवं बंभवं पण्णाणेहिं परिजाणति लोगं, मुणी ति वच्चे धम्मविदु त्ति अंजू आवट्टसोए संगमभिजाणति । सीतोसिणच्चागी से णिग्गंथे अरति-रतिसहे फारुसियं णो वेदेति, जागर - वेरोवरते वीरे ! एवं दुक्खा पमोक्खसि ।
१०७. जिस पुरुष ने शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श को सम्यक्प्रकार से परिज्ञात कर लिया है, (जो उनमें राग-द्वेष न करता हो), वह आत्मवान्, ज्ञानवान्, वेदवान् (आचारांग आदि आगमों का ज्ञाता), धर्मवान् और ब्रह्मवान्
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सूत्र
भगवती व में जयंती श्राविका और भगवान् महावीर का सुप्त और जागृत के विषय में एक संवाद आता है। जयन्ती श्राविका प्रभु से पूछती है - "भंते ! सुप्त अच्छे या जागृत ?"
भगवान् ने धर्मदृष्टि से अनेकान्तशैली में उत्तर दिया- "जो धर्मिष्ठ है, उनका जागृत रहना श्रेयस्कर है और जो अधर्मिष्ठ हैं, पापी हैं, उनका सुप्त (सोये) रहना अच्छा।"
यहां सुप्त और जागृत द्रव्यदृष्टि से नहीं। शतक १२ उ० २
देखिये 'समय' शब्द के विभिन्न अर्थ अमरकोष में -
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"समया शपथाचारकाल-सिद्धान्त-संविदः' समय के अर्थ हैं - शपथ, आचार, काल, सिद्धान्त और संविद (प्रतिज्ञां या शर्त) ।
यहाँ पाठान्तर में 'आयवी', 'नाणवी', 'वेयवी', 'धम्मवी', 'बंभवी' मिलता है जिसका अर्थ होता है - वह आत्मविद्, ज्ञानवित्, आचारादिक आगमों का वेत्ता (वेदवित्), धर्मवित् और ब्रह्म (१८ प्रकार के ब्रह्मचर्य) का वेत्ता होता है।