Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध सतत मूढ रहने वाला मनुष्य धर्म को नहीं जान पाता।
विवेचन - उक्त दोनों सूत्रों में क्रमशः मनुष्य की भोगेच्छा एवं कामेच्छा के कटुपरिणाम का दिग्दर्शन है। भोगेच्छा को ही अन्तर हृदय में सदा खटकने वाला काँटा बताया गया है और उस काँटे को उत्पन्न करने वाला आत्मा स्वयं ही है। वही उसे निकालने वाला भी है। किन्तु मोह से आवृतबुद्धि मनुष्य इस सत्य-तथ्य को पहचान नहीं पाता, इसीलिए वह संसार में दुःख पाता है।
सूत्र ८४ में मनुष्य की कामेच्छा का दुर्बलतम पक्ष उघाड़कर बता दिया है कि यह समूचा संसार काम से पीड़ित है, पराजित है। स्त्री काम का रूप है । इसलिए कामी पुरुष स्त्रियों से पराजित होते हैं और वे स्त्रियों को भोगसामग्री मानने की निकृष्ट-भावना से ग्रस्त हो जाते हैं।
'आयतन' शब्द यहाँ पर भोग-सामग्री के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। मूल आगमों तथा टीका ग्रन्थों में 'आयतन' शब्द प्रसंगानुसार विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। जैसे -
आयतन - गुणों का आश्रय । भवन, गृह, स्थान, आश्रय। ' देव, यक्ष आदि का स्थान, देव-कुल। ज्ञानदर्शन-चारित्रधारी साधु, धार्मिक व ज्ञानी जनों के मिलने का स्थान । ५ उपभोगास्पद वस्तु ।
नरक-तिर्यंच-गति - से तात्पर्य है, नरक से निकलकर फिर तिर्यंच गति में जाना।
स्त्री को आयतन - भोग-सामग्री मानकर, उसके भोग में लिप्त हो जाना - आत्मा के लिए कितना घातक/ अहितकर है, इसे जताने के लिए ही ये सब विशेषण हैं - यह दुःख का कारण है, मोह, मृत्यु, नरक व नरक-तिर्यंच गति में भव-भ्रमण का कारण है। विषय : महामोह ... ८५. उदाहु वीरे - अप्पमादो महामोहे, अलं कुसलस्स पमादेणं, संतिमरणं सपेहाए, भेउरधम्मं सपेहाए। णालं पास । अलं ते एतेहिं । एतं पास मुणि ! महब्भयं । णातिवातेज कंचणं ।
८५. भगवान् महावीर ने कहा है - महामोह (विषय/स्त्रियों) में अप्रमत्त रहे । अर्थात् विषयों के प्रति अनासक्त
रहे।
बुद्धिमान पुरुष को प्रमाद से बचना चाहिए। शान्ति (मोक्ष) और मरण (संसार) को देखने/समझने वाला
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प्रश्नव्याकरण : संवरद्वार; सूत्र २३ अभिधान राजेन्द्र भाग २, पृष्ठ ३२७ (क) प्रश्न० आश्रवद्वार (ख) दशाश्रुतस्कंध १।१० प्रवचनसारोद्धार द्वार १४८ गाथा ९४९ - आयतनं धार्मिकजनमीलनस्थानम्
ओघनियुक्ति गाथा ७८२ . प्रस्तुत सूत्र नरगाए - नरकाय, नरकगमनाथ, पुनरापि नरगतिरिक्खा - ततोपि नरकादुद्धृत्य तिरश्च प्रभवति।
_ - आचा० शी० टीका पत्रांक ११५ अलं तवेएहिं - पाठान्तर है। 'संतिमरण' का एक अर्थ यह भी है कि शान्तिपूर्वक मृत्यु की प्रतीक्षा करता हुआ नाशवान शरीर का विचार करे।
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९.