Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन : पंचम उद्देशक: सूत्र ४२-४४
४४. से त्तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए । सोच्चा भगवतो अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं णायं भवति - एस गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णिरए ।
इच्चत्थं गढिए लोए, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सतिकम्मसमारंभेणं वणस्सति सत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति ।
४२. तू देख ! ज्ञानी हिंसा से लज्जित/विरत रहते हैं। 'हम गृहत्यागी हैं, ' यह कहते हुए भी कुछ लोग नाना प्रकार के शस्त्रों से, वनस्पतिकायिक जीवों का समारंभ करते हैं । वनस्पतिकाय की हिंसा करते हुए वे अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिंसा करते हैं ।
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४३. इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा/विवेक का उपदेश किया है - इस जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान, पूजा के लिए, जन्म, मरण और मुक्ति के लिए, दुःख का प्रतीकार करने के लिए, वह (तथाकथित साधु) स्वयं वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है ।
यह (हिंसा - करना, कराना, अनुमोदन करना) उसके अहित के लिए होता है। यह उसकी अबोधि के लिए होता है।
४४. यह समझता हुआ साधक संयम में स्थिर हो जाए। भगवान् से या त्यागी अनगारों के समीप सुनकर उसे इस बात का ज्ञान हो जाता है - 'यह (हिंसा) ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है ।'
फिर भी मनुष्य इसमें आसक्त हुआ, नाना प्रकार के शस्त्रों से वनस्पतिकाय का समारंभ करता है और वनस्पतिकाय का समारंभ करता हुआ अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिंसा करता है ।
मनुष्य शरीर एवं वनस्पति शरीर की समानता
४५. से बेमि- इमं पि जातिधम्मयं, इमं पि वुड्डधम्मयं, इमं पि चित्तमंतयं, इमं पि छिण्णं मिलाति,
इमं पि आहारगं,
४५०
. मैं कहता हूँ -
इमं पि अणितियं, १
इमं पि असासयं, इमं पि चयोवचइयं, इमं पि विप्परिणामधम्मयं,
यह मनुष्य भी जन्म लेता है, यह मनुष्य भी बढ़ता है,
१- २. पाठान्तर 'अणिच्चयं'
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एयं पि जातिधम्मयं; 'एयं पिवुड्डधम्मयं ; एयं पि चित्तमंतयं; एयं पि छिण्णं मिलाति;
एयं पि आहारगं;
एवं पि अणितियं;
एवं पि. असासयं;
एयं पि चयोवचइयं; एवं पि विप्परिणामधम्मयं ।
यह वनस्पति भी जन्म लेती है । यह वनस्पति भी बढ़ती है ।