Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र / प्रथम श्रुतस्कन्ध
उच्चगोत्र है, नीच शब्द के द्वारा पहचाना जाना नीचगोत्र है।' इस विषय पर जैन ग्रन्थों में अत्यधिक विस्तार से चर्चा की गई है। उसका सार यह है कि जिस कुल की वाणी, विचार, संस्कार और व्यवहार प्रशस्त हो, वह उच्चगोत्र है और इसके विपरीत नीचगोत्र ।
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गोत्र का सम्बन्ध जाति अथवा स्पृश्यता-अस्पृश्यता के साथ जोड़ना भ्रान्ति है । कर्म सिद्धान्त के अनुसार देव गति में उच्चगोत्र का उदय होता है और तिर्यंच मात्र में नीचगोत्र का उदय, किन्तु देवयोनि में भी किल्विषक देव उच्च देवों की दृष्टि में नीच व अस्पृश्यवत् होते हैं। इसके विपरीत अनेक पशु, जैसे- गाय, घोड़ा, हाथी तथा कई नस्ल
कुत्ते बहुत ही सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं। वे अस्पृश्य नहीं माने जाते। उच्चगोत्र में नीच जाति हो सकती है तो नीचगोत्र में उच्च जाति क्यों नहीं हो सकती ? अतः गोत्रवाद की धारणा को प्रचलित जातिवाद तथा स्पृश्यास्पृश्य की धारणा के साथ नहीं जोड़ना चाहिए ।
भगवान् महावीर ने प्रस्तुत सूत्र में जाति-मद, गोत्र-मद आदि को निरस्त करने हुए यह स्पष्ट कह दिया है कि जब आत्मा अनेक बार उच्च-नीच गोत्र का स्पर्श कर चुका है; कर रहा है तब फिर कौन ऊँचा है ? कौन नीचा ? ऊँच-नीच की भावना मात्र एक अहंकार है, और अहंकार 'मद' है। 'मद' नीचगोत्र बन्धन का मुख्य कारण है। अतः इस गोत्रवाद व मानवाद की भावना से मुक्त होकर जो उनमें तटस्थ रहता है, समत्वशील है वही पंडित है । प्रमाद एवं परिग्रह - जन्य दोष
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७६. भूतेहिं जाण पड़िलेह सातं । समिते एयाणुपस्सी । तं जहा
अंधत्तं बहिरत्तं मूकत्तं काणत्तं कुंटत्तं खुज्जत्तं वडभत्तं सामत्तं सबलत्तं । सह पमादेणं अणेगरूवाओ जोणीओ संधेति, विरूवरूवे फासे पडिसंवेदयति ।
७७. से अबुज्झमाणे हतोवहते जाती- मरणं अणुपरियट्टमाणे ।
जीवियं पुढो पियं इहमेगेसिं माणवाणं खेत्त-वत्थु ममायमाणाणं । आरत्तं विरत्तं मणिकुंडलं सह हिरणेण इत्थियाओ परिगिज्झ तत्थेव रत्ता ।
ण एत्थ तवो वा दमो वा णियमो वा दिस्सति । संपुण्णं बाले जीविकामे लालप्यमाणे मूढे विप्परियासमुवेति ।
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७८. इणमेव णावकंखंति जे जणा धुवचारिणो ।
जाती- मरणं परिण्णाय चरे संकमणे दढे ॥ १ ॥
णत्थि कालस्स णागमो ।
१.
संव्वे पाणा पिआउया सुहसाता दुक्खपडिकूला अप्पियवधा पियजीविणो जीवितुकामा । सव्वेसिं जीवितं पियं
७६.
प्रत्येक जीव को सुख प्रिय है, यह तू देख, इस पर सूक्ष्मतापूर्वक विचार कर। जो समित (सम्यग्दृष्टिसम्पन्न) है वह इस (जीवों के इष्ट-अनिष्ट कर्म विपाक) को देखता है। जैसे -
अन्धापन, बहरापन, गूंगापन, कानापन, लूला-लंगड़ापन, कुबड़ापन, बौनापन, कालापन, चितकबरापन (कुष्ट्
प्रज्ञापना सूत्र पद २३ की मलयगिरि वृत्ति