Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचाराङ्गसूत्र का भावानुवाद प्रकाशित करवाया। श्रमणी विद्यापीठ घाटकोपर (बम्बई) से मूलपाठ के साथ गुजराती अनुवाद निकला है। इसके पूर्व रवजीभाई देवराज के और गोपालदास जीवाभाई पटेल के गुजराती में सुन्दर अनुवाद प्रकाशित हुए थे। हिन्दी में आचार्य अमोलकऋषिजी म. ने और पण्डितरत्न सौभाग्यमल जी म.ने, आचार्य सम्राट् आत्माराम जी म. ने आचाराङ्ग पर हिन्दी में विवेचन लिखा, हिन्दी-विवेचन हृदयग्राही है। प्रबुद्ध पाठकों के लिए वह विवेचन उपयोगी है। हीराकुमारी जैन ने आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का बंगला में अनुवाद प्रकाशित करवाया तथा तेरापंथी समुदाय के पण्डित मुनि श्री नथमल जी ने मूल और अर्थ के साथ ही विशेष स्थलों पर टिप्पण लिखे हैं। इस प्रकार आधुनिक युग में अनुवाद के साथ आचारांग के अनेक संस्करण प्रकाशित हुए हैं । मूलपाठ के रूप में कुछ ग्रन्थ आये हैं। उनमें आगमप्रभावक मुनि श्री पुण्यविजय जी द्वारा सम्पादित मूलपाठ संशोधन की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वूपर्ण है।
स्थानकवासी समाज एक महान क्रान्तिकारी समाज है। समय-समय पर उसने जो क्रान्तिकारी चिन्तन पर्वक कदम उठाये हैं उससे विज्ञगण मुग्ध होते रहे हैं। आचार्य अमोकलऋषि जी म., पूज्य घासीलालजी म., धर्मोपदेष्टा फूलचन्दजी म. के द्वारा आगम बत्तीसी का प्रकाशन हुआ है। उन प्रकाशनों में कहीं पर बहुत ही संक्षेप शैली अपनाई.गई और कहीं पर अतिविस्तार हो गया। जिसके फलस्वरूप आगमों के आधुनिक संस्करण की माँग निरन्तर बनी रही। स्थानकवासी जैन कान्फ्रेंस ने भी अनेक बार योजनाएँ बनाईं, पर वे योजनाएं मूर्त रूप न ले सकीं। सन् १९५२ में स्थानकवासी समाज का एक संगठन बना और उसका नाम 'वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ' रखा गया, श्रमण-संघ के प्रत्येक सम्मेलन में आगम प्रकाशन के सम्बन्ध में प्रस्ताव पारित होते रहे पर वे प्रस्ताव क्रियान्वित नहीं हो सके।
परम आह्लाद का विषय है कि मेरे श्रद्धेय सद्गुरुवर्य अध्यात्मयोगी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. के स्नेही साथी व सहपाठी श्री मधुकर मुनि जी म. ने आगम प्रकाशन की योजना को मूर्त रूप देने का दृढ़ संकल्प किया। उन्होंने कार्य में प्रगति लाने के लिए सम्पादक मण्डल का संयोजन किया। एक वर्ष तक आगम प्रकाशन व सम्पादन के सम्बन्ध में चिन्तन चलता रहा। इस बीच आचार्य प्रवर आनन्दऋषि जी म. ने आपश्री को युवाचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। आपके प्रधान सम्पादकत्व में आचारांगसूत्र का प्रकाशन हो रहा है।
प्रस्तुत आगम के मूल पाठ को प्राचीन प्रतियों के आधार से शुद्धतम रूप देने का प्रयास किया गया है। मूलपाठ के साथ ही हिन्दी में भावानुवाद भी दिया गया है और गम्भीर रहस्यों को स्पष्ट करने के लिए संक्षेप में विवेचन भी लिखा गया है। इस तरह प्रस्तुत आगम के अनुवाद व विवेचन की भाषा सरल, सरस और सुबोध है, शैली चित्ताकर्षक है। विवेचन में अनेक कठिन पारिभाषिक शब्दों का गहन अर्थ उद्घाटित किया गया है। प्रस्तुत आगम का सम्पादन, सम्पादन-कला-मर्मज्ञ श्रीचन्द जी सुराना ने किया है। सुराना जी विलक्षण-प्रतिभा के धनी हैं। आज तक उन्होंने पाँच दर्जन से भी अधिक पुस्तकों और ग्रन्थों का सम्पादन किया है। उनकी सम्पादन-कला अद्भुत और अनूठी है। युवाचार्यश्री के दिशा-निर्देशन में इसका सम्पादन किया है। मुझे आशा ही नहीं अपितु दृढ़ विश्वास है कि प्रस्तुत आगमरत्न सर्वत्र समादृत होगा। क्योंकि इसकी सम्पादन शैली आधुनिकतम है व गम्भीर अन्वेषण-चिन्तन के साथ सुबोधता लिए हुए है।
इस सम्पादन में अनेक परिशिष्ट भी हैं। विशिष्ट शब्दसूची भी दी गई है जिससे प्रत्येक पाठक के लिए प्रस्तुत संस्करण अधिक उपयोगी बन गया है। जाव' शब्द के प्रयोग व परम्परा पर सम्पादक ने संक्षिप्त में अच्छा प्रकाश डाला है। इसी तरह अन्य आगमों का प्रकाशन भी द्रुतगति से हो रहा है। मैं बहुत ही विस्तार के साथ प्रस्तावना लिखना चाहता था और उन सभी प्रश्नों पर चिन्तन भी करना चाहता था जो अभी तक अनछुए रहे। पर निरन्तर विहारयात्रा होने से समयाभाव व ग्रन्थाभाव के कारण लिख नहीं सका, पर जो कुछ भी लिख गया हूँ वह प्रबुद्ध पाठकों को आचारांग के महत्त्व को समझने में उपयोगी होगा ऐसी आशा करता हूँ। दि. १८-२-८०
- देवेन्द्रमुनि शास्त्री फाल्गुन शुक्ला; २०३६ जैन स्थानक, बोरीवली, बम्बई
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