Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र / प्रथम श्रुतस्कन्ध
आधार है। ऋजु आत्मा मोक्ष के प्रति सहज भाव से समर्पित होता है, इसलिए अनगार का दूसरा लक्षण है- (२) नियाग-प्रतिपन्न । उसकी साधना का लक्ष्य भौतिक ऐश्वर्य या यशः प्राप्ति आदि न होकर आत्मा को कर्ममल से मुक्त करना होता है।
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(३) अमाय - माया का अर्थ संगोपन या छुपाना है, साधना-पथ पर बढ़ने वाला अपनी सम्पूर्ण शक्ति को उसी में लगा देता है। स्व-पर कल्याण के कार्य में वह कभी अपनी शक्ति को छुपाता नहीं, शक्ति भर जुटा रहता है। वह माया रहित होता है।
नियाग-प्रतिपन्नता में ज्ञानाचार एवं दर्शनाचार की शुद्धि, ऋजुकृत् में वीर्याचार की तथा अमाय में तपाचार की सम्पूर्ण शक्ति परिलक्षित होती है। साधना एवं साध्य की शुद्धि का निर्देश इस सूत्र में है ।
२०. जाए सद्धाए णिक्खंतो तमेव अणुपालिज्जा विजहित्ता विसोत्तियं । १
२०. जिस श्रद्धा (निष्ठा/वैराग्य भावना) के साथ संयम पथ पर कदम बढ़ाया है, उसी श्रद्धा के साथ संयम का पालन करे । विस्रोतसिका - अर्थात् लक्ष्य के प्रति शंका व चित्त की चंचलता के प्रवाह में न बहे, शंका का त्याग कर दे ।
२१. पणया वीरा महावीहिं ।
२१. वीर पुरुष महापथ के प्रति प्रणत- अर्थात् समर्पित होते हैं ।
विवेचन - महापथ का अभिप्राय है, अहिंसा व संयम का प्रशस्त पथ । अहिंसा व संयम की साधना में देश, काल, सम्प्रदाय व जाति की कोई सीमा या बंधन नहीं है । वह सर्वदा, सर्वत्र सब के लिए एक समान है। संयम व शान्ति के आराधक सभी जन इसी पथ पर चले हैं, चलते हैं और चलेंगे। फिर भी यह कभी संकीर्ण नहीं होता, अतः यह महापथ है। अनगार इसके प्रति सम्पूर्ण भाव से समर्पित होते हैं।
अप्कायिक जीवों का जीवत्व
२२. लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं ।
से बेमि - णेव सयं लोगं अब्भाइक्खेज्जा, णेव अत्ताणं अब्भाइक्खेज्जा ।
जे लोगं अब्भाइक्खति, से अत्ताणं अब्भाइक्खति, जे अत्ताणं अब्भाइक्खति से लोगं अब्भाइक्खति ।
२२. मुनि (अतिशय ज्ञानी पुरुषों) की आज्ञा - वाणी से लोक को - अर्थात् अप्काय के जीवों का स्वरूप जानकर उन्हें अकुतोभय बना दे अर्थात् उन्हें किसी भी प्रकार का भय उत्पन्न न करे, संयत रहे ।
मैं कहता हूँ - मुनि स्वयं, लोक- अप्कायिक जीवों के अस्तित्व का अपलाप (निषेध) न करे। न अपनी आत्मा का अपलाप करे। जो लोक का अपलाप करता है, वह वास्तव में अपना ही अपलाप करता । जो अपना अपलाप करता है, वह लोक के अस्तित्व को अस्वीकार करता है 1
२.
(क) चूर्णि में 'तण्णो हुसि विसोत्तियं' पाठ है।
(ख) विजहित्ता पुव्वसंजोगं; विजहित्ता विसोत्तियं - ऐसा पाठान्तर भी है।