Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
त्रसकाय के पश्चात्; यह किस अपेक्षा से अतिक्रम हुआ है कि यह चिन्तनीय है। और यह स्पष्ट किया है कि इन जीवनिकायों की हिंसा मानव अपने स्वार्थ के लिए करता है, पर उसे यह ज्ञात नहीं कि हिंसा से कितने कर्मों का बन्धन होता है। इसलिए सभी तीर्थंकरों ने एक ही उपदेश दिया कि तुम किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो। १ हिंसा से सभी प्राणियों को अपार कष्ट होता है, इसलिए हिंसा कर्मबन्ध का एक कारण है।
मौलिक रूप में सभी आत्माएँ समान स्वभाव वाली हैं, किन्तु कर्म-उपाधि के कारण उनके दो रूप हो जाते हैं - एक संसारी आत्मा और दूसरी मुक्त आत्मा । आत्मा तभी मुक्त बनती है जब कर्म से रहित बनती है। इसलिए कर्मविघात के मूल साधन ही आचारांग में प्राप्त होते हैं। आत्मा को विज्ञाता भी बताया है। आत्मा ज्ञानमय है। इस प्रकार की मान्यताएँ हमें उपनिषदों में भी प्राप्त होती हैं।
भगवान् महावीर ने लोक को ऊर्ध्व, मध्य और अधः इन तीन विभागों में विभक्त किया है अधोलोक में दुःख की प्रधानता है, मध्यलोक में सुख और दुःख इनकी मध्यम स्थिति है, न सुख की उत्कृष्टता है और न दुःख की। ऊर्ध्वलोक में सुख प्रधान रूप से रहा हुआ है। लोकातीत स्थान सिद्धिस्थान और मुक्तस्थान कहलाता है। ऊर्ध्वलोक में देवलोक है, मध्यलोक में मानव प्रधान है और अधोलोक में नरक है। मध्यलोक एक ऐसा स्थान है जहाँ से जीव ऊपर और नीचे दोनों स्थानों पर जा सकता है। नारकीय जीव देव नहीं बन सकता और देव नारकीय नहीं बन सकता, पर मानवलोक का जीव नरक में भी जा सकता है, देव भी बन सकता है। उत्कृष्ट पाप के फल को भोगने का स्थान नरक है और पुण्य के फल को भोगने का स्थान स्वर्ग है। अच्छे कृत्य करने वाला स्वर्ग में पैदा होता है और बुरे कृत्य करने वाला नरक में। यदि मनुष्य बनकर वह साधना करता है तो मुक्त बन जाता है। वह संसारचक्र को समाप्त कर देता है। लोक और अलोक का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होता है। आचारांग के अनुसार अहिंसक जीवन का अर्थ है संयमी जीवन । भगवान् महावीर और बुद्ध दोनों ने सदाचार पर बल दिया है, यहाँ जातिवाद को बिल्कुल महत्त्व नहीं दिया गया है।
-
आचारांग में साधना- पक्ष
तथागत बुद्ध साधना के उषा काल में उग्रतम साधना करते रहे पर उन्हें उससे आनन्द की उपलब्धि नहीं हुई। जिसके कारण उन्होंने उग्र-साधना का परित्याग कर ध्यान का आलम्बन लिया। उनका यह अभिमत बन गया कि उग्र साधना ध्यानसाधना में बाधक है। पर प्रभु महावीर की साधना का जो शब्दचित्र आचारांग में प्राप्त है वह बहुत ही कठोर था। प्रभु महावीर चार-चार माह तक एक ही स्थान पर अवस्थित होकर साधना करते थे । उन्होंने छः माह तक भी अन्न और जल ग्रहण नहीं किया तथापि उनकी वह उग्र-साधना ध्यान में बाधक नहीं अपितु साधक थी। प्रभु महावीर निरन्तर ध्यान-साधना में लगे रहते थे। उन्होंने अपने श्रमण-संघ की जो आचार संहिता बनाई वह भी अत्यन्त उग्र साधना युक्त थी । श्रमण के अशन, वशन, पात्र, निवास स्थान के सम्बन्ध में यह नियम बनाया कि श्रमण के निमित्त यदि कोई वस्तु बनाई गई हो या पुरातन - पदार्थ में नवीनसंस्कार किया गया हो तो वह भी भिक्षु के लिए अग्राह्य है। वह उद्दिष्ट त्यागी है। यदि उसे अनुद्दिष्ट मिल जाए और उसके लिए उपयोगी हो तो वह उसे ग्रहण कर सकता है। जैन श्रमण अन्य बौद्ध और वैदिक परम्परा के भिक्षुओं की तरह किसी के घर पर भोजन का निमन्त्रण भी ग्रहण नहीं करता था। बौद्ध साहित्य में बौद्ध-श्रमणों के लिए स्थान-स्थान पर आवास हेतु विहारों के निर्माण का वर्णन है और वैदिक परम्परा के तापसों के लिए आश्रमों की व्यवस्था बताई गई है किन्तु जैन श्रमणों के लिए
१.
२.
३.
४.
आचारांगसूत्र १२६
आचारांगसूत्र १६५
आचारांगसूत्र ९३
आचारांगसूत्र १२०
[३२]