Book Title: Abhinav Vikruti Vigyan
Author(s): Raghuveerprasad Trivedi
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 14
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५] और शरीर के भीतरी अंगों और आशयों का सूक्ष्मांश निकाल करके उसका भी परीक्षण सूक्ष्म दर्शक से किया जाता है जिसको जीवद्वीक्षण ( Biopsy ) कहते हैं । इससे यकृत, प्लीहा, वृक्क, लसग्रन्थियाँ इनके भीतरी विकृतियों का पता रोगी की जीवितावस्था में लग जाता है । (३) अनुमान - विज्ञान की उन्नति से रोग निदान के लिए अनेक यन्त्रशस्त्रोपकरण उपलब्ध हुए हैं जिनके कारण रोगियों के शरीरों के भीतर की विकृतियों को प्रत्यक्ष करने का क्षेत्र प्राचीन काल की अपेक्षा अर्वाचीन काल में कई सौ गुना बढ़ गया है इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है । इसका अर्थ अब सब प्रत्यक्ष हो सकता है यह नहीं होता यह ध्यान में रखना चाहिए। बाइड ने अपने विकृतिविज्ञान के प्रारम्भ में इस विषय में चेतावनी दी है— It is true that in actual practice these alterations may be of so fine a character as to escape detection, but this is merely because the methods at our disposal are still compartively crude. This is even more true of the so called functional disorders which form so large a part of the physician's practice. आयुर्वेद ऋषियों का तो कहना है कि दोषधातुवैषम्य की प्रारम्भिक अवस्थाएँ कदापि प्रत्यक्ष नहीं होतीं, वे सदैव अनुमानगम्य ही रहती हैं और उनका अनुमान वैषम्यता के कारण रोगी के आत्मेन्द्रियों के ऊपर जो प्रतिकूल संवेदनाएँ प्रकट होती हैं उनके अवलोकन पर अधिष्ठित होता है- दोषादीनां त्वसमतामनुमानेन लक्षयेत् । अप्रसन्नेन्द्रियं वीक्ष्य पुरुषं कुशलो भिषक् ॥ सुश्रुत ॥ इसलिए चरकाचार्य कहते हैं कि जब तक वैद्य विकृतिविज्ञान संपन्न होकर और बुद्धि तथा बुद्धीन्द्रियों का दीपक लेकर रोगी के अन्तरात्मा में प्रवेश नहीं कर सकता तब तक न वह अचूक निदान कर सकता है, न चिकित्सा में यशस्वी हो सकता है— ज्ञानबुद्धिप्रदीपेन यो नाविशति तत्ववित् । आतुरस्यान्तरात्मानं न स रोगांश्चिकित्सति ॥ अभिनव विकृति विज्ञान - विविध रोगों में शरीर के भीतर जो विकृतियाँ सकता, परन्तु वे क्योंकर होती हैं उनमें प्राच्य और प्रतीच्य करके कोई अन्तर नहीं हो और कैसे होती हैं तथा किस प्रकार ठीक की जा सकती है इसके सम्बन्ध में प्राच्यप्रतीच्य का अन्तर हो सकता है । इस अन्तर के सम्बन्ध में मेरा प्रारम्भ से यह विचार रहा कि इसमें विरोध का कोई प्रश्न भिन्न पहलुओं से देखने का यह फल है । इस कहावत के अनुसार एक ही वस्तु का नहीं है, एक ही वस्तु की ओर भिन्नइसके साथ-साथ 'अधिकस्याधिकं फलम्' अभ्यास जितने अधिक पहलुओं से किया जाय उस वस्तु के सम्बन्ध में उतना ही अधिक ज्ञान प्राप्त होता है इस प्रकार का For Private and Personal Use Only

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